Book Title: Arhat Vachan 2000 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 13
________________ तो अब भी अपमरण नहीं है। इनको दीर्घ आयुष्य प्राप्त है। परन्तु ऐसे भी बहुत से मनुष्य पैदा होते हैं जिनकी आयु नहीं रहती और उनको वात, पित्त, कफादि दोषों का उद्वेक होता रहता है। उनके द्वारा कभी शीत और कभी उष्ण व कालक्रम से मिथ्या आहार सेवन करने में आता है। जिससे अनेक प्रकार के रोगों से पीड़ित होते हैं। इसलिये उनके स्वास्थ्य रक्षा के लिये योग्य उपाय बतायें। इस प्रकार भरत के प्रार्थना करने पर आदिनाथ भगवान ने दिव्य ध्वनि के द्वारा पुरुष लक्षण, शरीर, शरीर के भेदों, दोषोत्पत्ति, चिकित्सा, काल भेद आदि सभी बातों का विस्तार से वर्णन किया ।" - इस प्रकार दिव्यवाणी के रूप में प्रकट समस्त परमार्थ को साक्षात् गणधर ने प्राप्त किया। इसके बाद गणधर द्वारा निरूपित शास्त्र को निर्मल बुद्धि वाले मुनियों ने प्राप्त किया। इस प्रकार श्री ऋषभदेव के बाद यह शास्त्र तीर्थंकर महावीर तक चलता रहा । 15 दिव्यध्वनि प्रकटितं परमार्थजातं साक्षातथा गणधरोऽधिजगे समस्तम् । पश्चात् गणाधिपते निरूपित वाक्प्रपंचमष्टाधी निर्मलधियों मुनयोऽधिजग्मुः ॥ एवं जिनांतर निबन्धनसिद्धमार्गादायातमापतमनाकुलमर्थगाढम् । स्वायंभुवं सकलमेव सनातनं तत् साक्षाच्छ्रुतश्रुतदलैः श्रुत केवलीभ्यः ॥ स्पष्ट है कि तीर्थंकरों ने प्राणावाय परम्परा का ज्ञान प्रतिपादित किया। फिर गणधरों, प्रतिगणधरों, श्रुतकेवलियों, मुनियों ने सुनकर प्राप्त किया। जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित और अन्य प्राणावायावतरण (आयुर्वेदावतरण) की यह परम्परा आयुर्वेदीय चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि ग्रन्थों अर्थात् वैदिक साहित्य में वर्णित आयुर्वेद परम्परा से सर्वथा भिन्न व नवीन है। जैन साहित्य में आयुर्वेद की परम्परा व वैदिक साहित्य में आयुर्वेद की जो परम्परा प्राप्त होती है उसे सारणी क्रमांक-1 व 2 द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। 16 पर, प्राणावाय परम्परा के अंतिम ग्रंथ कल्याणकारक में प्राणावाय सम्बन्धी पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत अनेक ग्रन्थों का नामोल्लेख हुआ है। उसमें लिखा है 17 पूज्यपाद ने शालाक्यतंत्र पात्रस्वामी ने शल्यतंत्र, सिद्धसेन ने विष और उग्र ग्रह शमनविधिका, दशरथगुरु ने कायचिकित्सा पर, मेघनाथ ने बालरोगों पर, सिंहनाद ने वाजीकरण और रसायन पर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी ग्रन्थ में आगे उल्लेख है 18 कि समन्तभद्र ने विस्तारपूर्वक आयुर्वेद के आठ अंगों पर ग्रंथ की रचना की थी । समन्तभद्र के अष्टांगविवेचनपूर्ण ग्रन्थ के आधार पर ही उग्रादित्य ने संक्षेप में अष्टांगयुर्वेद युक्त कल्याणकारक नामक ग्रंथ की रचना की। - कल्याणकारक में वर्णित उपर्युक्त प्राणावाय संबंधी सभी ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं। पूज्यपाद के वैद्यक ग्रन्थ की प्रति भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में (संस्कृत पाण्डुलिपि). ग्रंथागार में सुरक्षित है। पूज्यपाद के संस्कृत कल्याणकारक का कन्नड़ में अनूदित ग्रंथ अब भी मिलता है, जो सोमनाथ द्वारा विरचित है। प्राणावाय की परम्परा के अन्तर्गत या बाद में अन्य विविध कारणों से जैन यति- मुनियों, भट्टारकों और श्रावकों ने आयुर्वेद के विकास और आयुर्वेदीय ग्रंथों की रचना में महान योगदान दिया। ये ग्रंथ राजस्थान, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, मद्रास, तंजौर, मूडबिद्री आदि और भी अनेक स्थानों के शास्त्र - भंडारों में भरे पड़े हैं। यह दुर्भाग्य का विषय है कि इनमें से अधिकांश ग्रंथ अप्रकाशित हैं और अनेक अज्ञात । कल्याणकारक आज प्राणावाय परम्परा का अंतिम ग्रंथ प्रतीत होता है जिसका रचनाकाल 6 ठी शताब्दी है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि जैनधर्म व जैन साहित्य से आयुर्वेद का अर्हत् वचन, जुलाई 2000 11

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