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उपरोक्त साहित्य के अतिरिक्त कुछ लेखकों ने स्वतंत्र रूप से जैन आयुर्वेद विषयक पुस्तकों की रचना की जिसमें जैन आयुर्वेदाचार्यों की जानकारी प्राप्त होती है। जैसे तेजसिंह गौड़ (1978), राजेन्द्र भटनागर ( 1984 )। इनकीं पुस्तकों द्वारा शोध कार्य को बहुत सहयोग प्राप्त हुआ। इन पुस्तकों ने जैन आयुर्वेद साहित्य को उजागर करके शोध की दिशा में निरन्तर मार्ग प्रशस्त किया। इसी प्रकार श्री पं. पदेजी ने विदेशों में गयी आयुर्वेद की अनेक पुस्तकों में से लगभग 1000 पुस्तकों की सूची तैयार की एवं रामदास अपनी पुस्तक 'हिन्दुत्व'' में आयुर्वेद के अनेक अलभ्य ग्रंथों व विभिन्न तथ्यों को उजागर किया है।
उपरोक्त आयुर्वेद विषयक ग्रंथों के अतिरिक्त विद्वानों ने विभिन्न शोध पत्र-पत्रिकाओं, अभिनन्दन ग्रंथों, स्मृति ग्रंथों में महत्वपूर्ण लेखों का प्रकाशन कराया जिनमें से प्रमुख लेखक जुगलकिशोर मुख्तार (1937), अगरचन्द नाहटा (1937), के. भुजबली शास्त्री (1938), गोविन्द धाणेकर (1943), श्रीपतराम गौड़ (1964), हनुमन्तप्रसाद शास्त्री (1967), विद्याधर थापर (1967), स्वामी मंगलदास (1967), राजेन्द्र भटनागर (1976), हरिशचन्द्र जैन (1981), राजकुमार शास्त्री (1981), ब्रज किशोर पाण्डे (1981), राजकुमार जैन (1987), राजेन्द्र भटनागर (1987), तेजसिंह गौड़ (1987), कुन्दनलाल जैन (1987), आ. पूज्यपाद विशेषांक में विभिन्न विद्वानों के लेख (1991), उदयचन्द जैन (1992), स्नेहरानी जैन (1992), राजकुमार जैन (आचार्य) (1993), एच.सी. जैन (1993) आर्यिका जिनमती (1994), राजकुमार जैन (1994), कुन्दनलाल जैन (1995), मुनि चन्द्रकमल (1996), (वैद्य) सोहनलाल (1997), राजकुमार जैन (1997) कुन्दनलाल जैन (1997), शंकुन्तला जैन (1997) आदि। इन लेखों से आयुर्वेद विषयक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
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उपरोक्त स्वतंत्र लेखन कार्यों के अतिरिक्त जैन आयुर्वेद साहित्य पर प्रशंसनीय शोध कार्य (1) यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन - डा. गोकुलचन्द्र जैन, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी 1965 ( प्रकाशित), (2) पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि का समालोचनात्मक अध्ययन डॉ. सनमत कुमार जैन, कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय 1981 (अप्रकाशित), (3) मध्यकालीन भारत में चिकित्सा शास्त्र डॉ. गोपाल दुबे, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर (1979) ( अप्रकाशित), (4) पुष्पायुर्वेद का सांस्कृतिक अध्ययन डॉ. रेखा जैन, पूना विश्वविद्यालय (1991) (प्रकाशित) हुए हैं। ये शोधकार्य प्रशंसनीय इसलिए हैं कि जैन आयुर्वेद साहित्य को शोध का विषय बनाया गया है। लेकिन यह भी सत्य है कि इन शोध प्रबन्धों में जैन साहित्य में आयुर्वेद विषयक बहुत सी सामग्री उपेक्षित ही रह गयी। जैसे डा. रेखा जैन के शोध प्रबंध में संबंधित विषय की जानकारी कम व विषय की भूमिका / उपसंहार अधिक है। इसी तरह डा. गोपाल दुबे ने अपने शोध प्रबन्ध में जैन आयुर्वेदाचार्यों व आयुर्वेद साहित्य को बहुत ही कम स्थान दिया है। इसके अध्याय 7 में "मध्यकालीन युग में चिकित्सा सम्बन्धी ग्रंथ' के प्रथम भाग में आयुर्वेदीय ग्रंथ में जो सूची दी गई है उसमें मात्र 8-9 जैनाचार्यों द्वारा रचित आयुर्वेदिक ग्रंथों का ही विवरण दिया है। जबकि लेखिका ने स्वयं द्वारा किये गये शोध कार्य में मध्यकाल के (12 वीं श से 17 वीं श तक) लगभग 30 जैनाचार्यों व उनके द्वारा रचित वैद्यक ग्रंथों का विवरण शोध प्रबंध में दिया है। डॉ. दुबे अपने शोध प्रबन्ध में जैन आयुर्वेदिक ग्रंथों के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर पाये थे। फिर भी डा. दुबे का कार्य सराहनीय व प्रशंसनीय है। उन्होंने महत्वपूर्ण जैन आयुर्वेदाचार्यों को अपने शोध प्रबन्ध में स्थान देकर उसके महत्व को उजागर किया है।
उपरोक्त शोध प्रबन्ध अनुसंधान व खोज के नये द्वार खोलते हैं। इस प्रकार विभिन्न विद्वानों, इतिहासकारों के स्वतंत्र पुस्तकों के लेखन, शोध पत्र स्मृतिग्रंथों में आयुर्वेद विषयक सामग्री का प्रकाशन समय
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पत्रिकाओं, स्मारिकाओं, अभिनन्दन, समय पर होने वाली संगोष्ठियों
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
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