Book Title: Arhat Vachan 2000 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 18
________________ आने से पूर्व ही जैनाचार्य अपने आहार पथ्यापथ्य का विशेष ध्यान रखते थे। जैसे जमीकंद का प्रयोग न करना, रात्रि भोजन न करना, पानी छानकर पीना, विविध शल्यचिकित्सा के स्थान पर औषधि निर्माण में वनस्पतियों, खनिज, लवण, क्षार, चूर्ण, गुटिका भस्म आदि का प्रयोग करना। इसके साथ ही जैनाचार्यों के आचार - नियम में परिग्रह न करना प्रमुख है। औषधि निर्माण में कम से कम सामग्री का उपयोग हो, औजारों की आवश्यकता न पड़े इन बातों का ध्यान रखते हुए जैनाचार्यों ने औषधि निर्माण की विधियां बताकर विविध रोगों की चिकित्सा का पथ प्रशस्त किया है। 13. जैनाचार्यों द्वारा आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में अहिंसात्मक शाकाहारी चिकित्सा पूर्णरूप से स्वीकार किया है कि मांसाहार की अपेक्षा सहायक होता है। अपनाये गये सिद्धान्त पूर्णत: वैज्ञानिक हैं। वैज्ञानिक है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने भी यह शाकाहार स्वस्थ व लंबा जीवन जीने में इस प्रकार ये विशेषताएँ और इन जैसे अनेक अन्य वैशिष्ट्य जैनाचार्यों द्वारा विकसित आयुर्वेद को इतर धर्मावलम्बियों के आयुर्वेद से पूर्णत: अलग कर देते हैं। जैन आयुर्वेद में रोग निदान तो लक्ष्य है ही, किन्तु निदान प्रक्रिया भी पूर्णत: हिंसा से मुक्त है। जैनाचार्यों ने आयुर्वेद व चिकित्सा शास्त्र के विषय में गवेषणापूर्ण चिंतन व अनुभव के आधार पर निर्दोष, सात्विक, शुद्ध शाकाहारी चिकित्सा विधियों का प्ररूपण किया है। इनकी व्यापकता पर शोध व खोजपूर्वक इन ग्रंथों का संपादन, प्रकाशन, व्यापक प्रचार- प्रसार वर्तमान परिस्थितियों में अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि आज के युग में औषधि के नाम पर अनेकों अभक्ष्य अस्पृश्य औषधियाँ अज्ञानता व मजबूरी में लोग सेवन करते हैं। इससे आहार शुद्धि व अहिंसात्मक जीवनवृत्ति बाधित होती है। वही इन अभक्ष्य औषधियों के पार्श्व - परिणाम भी शरीर को कमजोर करके अनेकों व्याधियों का गढ़ बना देते हैं। अतः आहार शुद्धि, सत्व शुद्धि की मान्यता को ध्यान में रखते हुए शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत आयुर्वेदिक ग्रंथों का अनुसंधान व अनुशीलन का विशाल क्षेत्र अनुसंधानकर्त्ताओं, चिकित्सकों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 16 जैनाचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य की जो रचना की वह साहित्य निर्माण में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने लोकहित की भावना को ध्यान में रखते हुए आयुर्वेद विषयक साहित्य सृजन किया है। जैनाचार्यों ने जिस भी विषय पर अपनी लेखनी चलायी उसका उद्देश्य मात्र लोक कल्याणक की भावना थी । विभिन्न साहित्यिक प्रमाणों से शोध प्रबंध में वर्णित जैन आयुर्वेदाचार्यों के विवरण से स्पष्ट होता है कि जैनाचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य की वृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जैनाचार्यों ने जिन आयुर्वेद ग्रंथों की रचना की उनमें पूर्णत: जैन धर्म के सिद्धान्तों का अनुकरण व धार्मिक नियमों का परिपालन किया गया है, जो उनकी मौलिक विशेषता है। उन्होंने मनुष्य की शारीरिक स्थिति के साथ - साथ मानसिक, आध्यात्मिक स्थिति के विषय में विस्तृत विवेचन किया। जैन आयुर्वेद ग्रंथों में उल्लेखित औषधियाँ रोग व योग प्रायोगिक ज्ञान पर आधारित है। अहिंसात्मक तत्वों का कठोरता से परिपालन किया गया है। जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' का प्रयोग भी आयुर्वेद विज्ञान से किया गया है। मद्य, मांस, मधु के सेवन का जैन चिकित्सा विज्ञान में पूर्णत: निषेध किया है। रात्रि भोजन का त्याग, गर्म पानी का सेवन, अहिंसा, तप, दान जैसे सिद्धान्तों के मूल में जो कारण है वह भी पूर्ण वैज्ञानिक आयुर्वेदिक पद्धति पर आधारित है। उसके साथ ही आहारगत जो नियम जैनाचार्यों ने व्यवहार में लिये हैं उसका तर्कसंगत रूप से आयुर्वेदिक कारण स्पष्ट होला है। भारतीय साहित्य को जैनाचार्यों अर्हत् वचन, जुलाई 2000

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