________________
____ क्रोध से उत्पन्न होने वाले जुआ, चोरी, वेश्या और परस्त्री सेवन इन चार व्यसनों में से जुआ खेलने के समान और कोई नीच व्यसन नहीं है। जुआ खेलने वाला सबसे प्रथम सत्य महागुण को हारता है, पीछे लज्जा, अभिमान, कुल सुख, सज्जनता, बंधुवर्ग, धर्म, द्रव्य, क्षेत्र, घर, वंश, माता-पिता, बाल - बच्चे, स्त्रियाँ और स्वयं अपने को हारता है। राजा निकृष्ट से निकृष्ट कार्य करने लगता है, अपने राज्य को भी हार बैठता है। पांडव पुराण में पाँचों पांडव राजाओं को जुआ जैसे दुर्व्यसन के कारण अपना राज्य और प्राणों से प्यारी स्त्री छोड़ना पड़ी। जीवन्धर चरित्र में राजा सत्यंधर को विषयासक्त होने पर अपनी रानी, पुत्र और राज्य से हाथ धोने पड़े और जीवन भी समाप्त करना पड़ा।
इस प्रकार उपर्युक्त दुर्गुण राजा में पाये जाते हैं जिससे उनका व्यक्तिगत जीवन का पतन तो निश्चय से होता है साथ ही देश का भी शीघ्र पतन हो जाता है। नीति वाक्यामृत में सोमदेव सूरि ने उचित ही लिखा है - 'संसार में राजा का न होना अच्छा है किन्तु मूर्ख राजा का होना अच्छा नहीं क्योंकि संसार में अज्ञानता से बढ़कर कोई दूसरा दुःख है ही नहीं। 46 सन्दर्भ सूची 1. पद्म पुराण, रविषेणाचार्य, अनु. - डॉ. पन्नालाल जैन 'साहित्याचार्य', भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, तृतीय
संस्करण, 1989, भाग -3, पर्व 28, श्लोक 20-24, पृ. 218 जिन शासन तत्वज्ञ शरणागत वत्सल।
सत्यस्थायितौसद्वाक्यौ बाढ़ नियमितेन्द्रियः॥ 2. पद्म पुराण, भाग - 1, सर्ग - 2, श्लोक 51 - 53, पृ. 14 3. पद्म पुराण, भाग - 3, सर्ग - 66, श्लोक 90, पृ. 7
पद्म पुराण, भाग - 3, पर्व 72, श्लोक 88 सर्वेषु नमशास्त्रषु कुशलों लोकतंत्रावित्॥
जैन व्यकरणाभितो महागुण विभूषितः॥ 5. वही, भाग - 3, पर्व 97, श्लोक 128 - 130, पृ. 211 6. आदि पुराण भाग 1 - 2, जिनसेनाचार्य, अनु. पन्नालाल जैन 'साहित्याचार्य', भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,
तृतीय संस्करण, 1988, भाग -2, पर्व 35, श्लोक 175, पृ. सं. 189 (35/175) 7. आदि पुराण, भाग - 3, पर्व 35, श्लोक 46 - 49, पृ. 450 8. वही, भाग - 3, पर्व 35, श्लोक 129 - 131, पृ. 184 9. वही, भाग - 3, पर्व 28, श्लोक 137, 4/124, पृ. 48 10. वही, भाग - 3, पर्व 35, श्लोक 105 - 106, पृ. 182 11. वही, भाग - 3, पर्व 35 श्लोक 112 - 113 12. वही, भाग - 3, पर्व 28, श्लोक 91, पृ. 43 13. वही, भाग - 3, पर्व 43, श्लोक 129, पृ. 363 14. महापुराण, जिनसेनाचार्य, अनु. - डॉ. पन्नालाल जैन, 'साहित्याचार्य', भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 42/199,
पृ. 348 राजा चित्तं समाधाय यत्कुर्याद दुष्टनिग्रहम्।
शिष्यनुपालनं चैव तत्सामज्जस्य मुच्यते॥ 15. वही, सर्ग 44, श्लोक 129 - 130, पृ. 398, 399
-
अर्हत् वचन, जुलाई 2000