Book Title: Arhat Vachan 2000 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 73
________________ पुस्तक समीक्षा व्यक्तित्व निर्माण का प्रेरक तत्व लेश्या पुस्तक - लेश्या और मनोविज्ञान लेखक - डॉ. शान्ता जैन प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) मूल्य - रु. 150/समीक्षक - डॉ. (कु.) सरोज कोठारी, सहायक प्राध्यापिका - मनोविज्ञान, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर - 452 017 प्रथम अध्याय में लेश्या के सैद्धांतिक पक्ष के सन्दर्भ में लेखिका द्वारा प्रस्तुत लेश्या की परिभाषा, वर्गीकरण, वर्ण, रस, स्थिति आदि का उल्लेख सारगर्भित है। लेश्या मुक्ति - पथ का बाधक तत्व है। अत: लेशी से अलेशी बनने के लिये कर्म से अकर्म की तरफ बढ़ना आवश्यक माना गया है। द्वितीय अध्याय में जैन दर्शन में प्रस्तुत लेश्या का मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया गया है। फ्रायड द्वारा प्रस्तुत चेतना के विविध पक्ष लेश्या से संबंधित हैं। मनोविज्ञान की परिभाषाओं में (पृ. सं. 55) व मूल पंक्तियों के वर्गीकरण (पृ. सं. 66) में मनोवैज्ञानिकों के नामों का उल्लेख किया जाता तो बेहतर होता। मन के स्तरों के सन्दर्भ में दमन शमन को (प्र. सं. 58) समानार्थी न मानकर अलग उल्लेख किया जाना था। केवलज्ञान सिर्फ शुक्ल लेश्या में ही हो सकता है अत: लेश्या विशद्धि को जीवन की श्रेष्ठता का आधार माना गया है। तृतीय अध्याय में रंगों व व्यक्तित्व गुणों के संबंधों का उल्लेख है। रंग चिकित्सा (पृ. सं. 107) के अन्तर्गत यदि शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिये रंग चिकित्सा का विस्तार से उल्लेख किया जाता तो बेहतर होता। चतुर्थ अध्याय में लेश्या विशुद्धि के सन्दर्भ में आभा मंडल की चर्चा एक सार्थक प्रयास है। पंचम अध्याय में द्रव्य लेश्या के आधार पर बाहरी व्यक्तित्व तथा भाव लेश्या के आधार पर आंतरिक व्यक्तित्व की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। व्यक्तित्व प्रकारों के (पृ. सं. 140) अन्तर्गत यदि कैटेल द्वारा प्रस्तुत सर्वमान्य व व्यापक व्यक्तित्व वर्गीकरण का उल्लेख किया जाता तो बेहतर होता। षष्टम अध्याय में व्यक्तित्व विघटन का कारण अशुभ लेश्याओं को माना गया है। लेश्या विशुद्धि को व्यक्तित्व बदलाव हेतु आवश्यक माना गया है। सप्तम अध्याय में ध्यान के भेद - प्रभेद का उल्लेख है बौद्धिक विकास और भावनात्मक संतुलन को प्रेक्षाध्यान का सूत्र माना है। अष्टम अध्याय में ध्यान और लेश्या के संबंधों का उल्लेख सराहनीय है। अशुभ लेश्या को शारीरिक व मानसिक समस्याओं का कारण माना गया है। व्यक्तित्व परिष्कार हेतु लेश्या का विशुद्धिकरण आवश्यक है। रंग ध्यान व्यक्तित्व रुपांतरण हेतु आवश्यक हैं। प्रस्तुत पुस्तक में जैन दर्शन में प्रस्तुत लेश्या को मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया गया है। लेश्या / भावधारा को छोड़कर मानसिक दशाओं की व्याख्या असंभव है। लेश्या और मनोविज्ञान परस्पर पूरक हैं। वर्तमान समय में लेश्या का अध्ययन अत्यंत प्रासंगिक है। मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या के गहन अध्ययन का लेखिका का प्रयास सार्थक व सराहनीय है। प्रस्तुत पुस्तक महत्वपूर्ण व संग्रहणीय है। अर्हत् वचन, जुलाई 2000

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