Book Title: Arhat Vachan 2000 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 85
________________ अनुकरणीय पहल दिगम्बर जैन सोशल ग्रुप 'नेमिनाथ', इन्दौर ने विगत दिनों अर्हत् वचन में प्रकाशित एक अनुरोध पर त्वरित कार्यवाही कर एक आयोजन किया जिसमें N.C.E.R.T. द्वारा प्रकाशित 'प्राचीन भारत' पुस्तक की विसंगतियों पर विस्तार से चर्चा हुई। हम उनके द्वारा प्रकाशित हेण्डबिल को यहाँ उद्धृत कर रहे हैं। यह हजारों की संख्या में इन्दौर में वितरित किया गया है। क्या अब हमें 'तीर्थंकर हुए थे' इसकी भी रजिस्ट्री पेश करना होगी? सभी (दिगम्बर / श्वेताम्बर) जैन समाज के बन्धुओं! जैन समाज में रीडर डाइजेस्ट सी प्रतिष्ठा प्राप्त पत्रिका 'अर्हत् वचन' के अप्रैल 2000 अंक में पृष्ठ 66 पर 'भारत के मनीषी इतिहासकारों से निवेदन' शीर्षक से अलवर के एडवोकेट खिल्लीमल जैन का जो लेखकीय निवेदन प्रकाशित हुआ है कृपया उसे अक्षरश: यथावत पढ़िये। इस वैचारिक स्वतंत्रता के युग में किसी के व्यक्तिगत विचारों हेतु हम उससे लड़ नहीं सकते ना ही हम किसी को ऐसा बाध्य कर सकते हैं कि जो हम मानते हैं उसे तुम भी मानों। परन्तु इसका यह मतलब भी नहीं है कि व्यक्तिगत मान्यता की बौद्धिक अजीर्णता वाली हठधर्मिता भरी जिद वैधानिक रूप में बाकायदा पढ़ाये जाने वाली पाठ्यपुस्तक में स्थान पाकर विद्यार्थियों को स्थायी तौर पर रटाई जाने लगे। यह तो जैन समाज की हजारों साल से स्थापित अटूट आस्था, श्रद्धा पर एक तरह से सीधा आक्रमण है। तीर्थंकरों के सन्दर्भ में हमारे पास तो खैर एक नहीं पचासों प्रमाण है। बावजूद अगर प्रमाण नहीं भी हो तो धार्मिक आस्था ऐसा विषय है जिसमें किसी भी लेखक को बौद्धिक आक्रमण नहीं करना चाहिये। सब जानते हैं कि पीपल के नीचे सिन्दूर लगा पत्थर कुछ माह पहले तक रास्ते के किनारे पड़ा हुआ पत्थर हो सकता है। परन्तु क्या आस्था के सिन्दूर से उसके भगवान बन जाने के पश्चात् क्या यह व्यवहार्य होगा कि कोई यह कुतर्क करते हुए कहे कि बताओं इसमें भगवान कहाँ है उसे ठोकर मारते हुए हजारों मानने वालों की आस्थाओं का अपमान करने लगे। लेखक द्वारा भगवान महावीर को बगैर वस्त्र बदले 12 वर्ष तक इधर- उधर भटकते हुए बताने का आखिर उद्देश्य क्या है? क्या वह यह बताना चाहता है कि महावीर बावले हो गये थे? क्योंकि हमारे श्रद्धान में तो हमारे पूज्य मुनिवर, गुरु विहार करते हुए भटके हुओं को सही मार्ग दिखाते हैं ना कि खुद भटकते हैं। वैसे तो इस तरह का फूहड़ लेखन अति संवेदनशील होकर घोर उत्तेजना का कारण बन सकता है परन्तु हमारी अहिंसक समाज का स्वरूप और चिंतन ऐसा नहीं है कि हम आवेश में आकर ऐसे लेखन के प्रति कोई फतवा जारी कर दें। हम यह तो कर सकते हैं तथा यह करना भी चाहिये कि अपने शांतिपूर्ण विरोध को केन्द्रीय शासन के सामने बगैर किसी उत्तेजना के, सभ्यतापूर्ण ढंग से पूरी एकता के साथ विनम्रतापूर्वक दर्ज करा दें जिससे कि ना सिर्फ उपरोक्त स्तर का लेखन पुस्तकों से हटा दिया जाये बल्कि आगे भी ऐसा लेखन पुन: न हो इसके प्रति अन्य लेखक भी सावधान रहें और हमें यह विश्वास है कि समाज के शीर्ष नेतृत्व द्वारा प्रथम निवेदन करने पर ही ऐसे पाठ पाठ्यक्रमों से हटा दिये जायेंगे। अर्हत् वचन, जुलाई 2000

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