Book Title: Arhat Vachan 2000 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 87
________________ अहत् वचन मत- अभिमत अर्हत वचन का जनवरी-मार्च 2000 अंक आज ही मिला। इसमें प्रकाशित विभिन्न उपयोगी लेखों के सन्दर्भ में मैं निम्नांकित बिन्दु आपके विचारार्थ प्रेषित कर रहा हूँ जिन पर आप विचार करके प्रकाशन एवं अन्य आवश्यक कार्यवाही करने का कष्ट करें - 1. आपका संपादकीय आलेख नि:सन्देह सामयिक है। मैं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा 'सम्पर्क' डाइरेक्ट्री के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई अर्पित करता हूँ। 2. डॉ. संगीता मेहता का लेख, 'जैन धर्म की प्राचीनता और ऋषभदेव' तथा डॉ. स्नेहरानी का लेख, 'ऋग्वेद मूलत: श्रमण ऋषभदेव प्रभावित कृति है' इतने अधिक उपयोगी है कि प्रशंसा के लिए मेरे पास उपयक्त शब्द नहीं है। आपके माध्यम से मेरा लेखक द्वय से अनुरोध है कि इन दोनों लेखों के आधार पर विस्तृत पाठ्य पुस्तक का सजन किया जावे जिसमें संदर्भित उद्धरणों को अर्थ सहित उद्धरित किया जावे तथा जोड़ी गई विकृतियों/परिस्थितियों का विस्तार से विवेचन हो। 3. डॉ. दयाचन्दजी जैन साहित्याचार्य के लेख, 'महामंत्र णमोकार - एक तात्विक एवं वैज्ञानिक विवेचन' के सम्बन्ध में मैं आपका ध्यान अर्हत् वचन के अक्टूबर 1996 अंक में मत - अभिमत के अन्तर्गत प्रकाशित मेरी टिप्पणी, 'मंत्र विद्या की जैन मान्यता संदिग्ध' की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। विद्वान लेखक ने धरसेनाचार्य के शिष्य आचार्य पुष्पदंत को णमोकार महामंत्र का रचयिता बताया है, अत: इसे अनादि नहीं कहा जा सकता। महासमिति पत्रिका में प्रकाशित न्यायमूर्ति एम.एल. जैन ने महामंत्र के वर्तमान स्वरूप एवं ऐतिहासिकता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। लेख से मंत्र के मात्र स्थूल जाए से गृह शान्ति, दुःख निवारण आदि का उल्लेख किया है। यदि ऐसा है तो मंत्र में प्रतिष्ठित पंच परमेष्ठी के उपदेश, निर्दिष्ट मार्ग एवं उनके आचरण का अनुकरण अप्रासंगिक हो जावेगा। जैन दर्शन पुरुषार्थ प्रधान है, रत्नत्रय मार्ग के अनुसरण, जैन आचार संहिता में निर्दिष्ट, सचरित्र, कषाय शमन, अणुव्रत - महाव्रत अनुपालन, तप, त्याग आदि से ही अशुभ कर्मों की संवर - निर्जरा, शुभ - शुद्ध परिणति संभव है। मंत्रों की सार्थकता पर साधारण व्यावहारिक प्रयोग किया जा सकता है, कोई होनहार विद्यार्थी केवल मंत्र का जाप करे विषय का अध्ययन नहीं करे और देखें कि वह उत्तीर्ण होता है या नहीं। यदि मंत्र का जाप ही अभीष्ट हो तो उसमें निहित शिक्षा, आदर्श तिरोहित हो जावेंगे और शिथिलाचारियों के लिए यह एक अच्छा बहाना होगा। इससे समाज में सदाचरण, तप - त्याग के प्रति और अधिक ह्रास होगा, अनाचार बढ़ेगा। लेख में पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहु आचार्य का भी उल्लेख किया गया है जबकि उस समय कुछ लिखा ही नहीं गया था। उपलब्ध साहित्य उनके बाद अल्यल्प स्मृति के आधार पर धरसेनाचार्य एवं गुणधराचार्य से उनकी शिष्य परम्परा द्वारा प्रणीत आगमोत्तर है। 4. श्री हेमन्त कुमार जैन ने अपने लेख 'अन्य ग्रहों पर जीवन' में पृष्ठ 51 पर किसी महाशक्ति को जगत का कर्ता, संचालक किसी एक ईश्वर को प्रतिपादित किया है जो जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों के विपरीत है। जैन समाज की यह दु:खद त्रासदी है कि जैन विद्वान भी जैन सिद्धान्तों के विपरीत प्रतिपादन करते है। ..........आदि। . - सूरजमल जैन 7- बी तलवंडी प्राइवेट सेक्टर, कामर्स कालेज रोड़, कोटा- 324005 (राज.) अर्हत् वचन, जुलाई 2000

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