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ऋषभदेव संगोष्ठी
जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर, २0-२९ मई 2018 आयोजक नीर्थकर ब्रदपभदेव जैन विटन महासंघ
डॉ. प्रकाशचन्द जैन, इन्दौर ने निर्वाण महोत्सव की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि जिसकी मृत्यु मर जाती है उन्हीं का निर्वाण होता है। इसीलिये तीर्थंकर आदिनाथ का निर्वाण महोत्सव मनाने का संकल्प पूज्य माताजी ने लिया । मृत्यु का अंत करने का उपदेश ही भगवान ऋषभदेव ने दिया। पं. पदमचन्द्र जैन, पानीपत ने कहा कि भगवान आदिनाथ का समय कितना वैज्ञानिक था जहाँ के इंजीनियर्स 86 मंजिल का सर्वतोभद्र महल बनाते थे। भगवान की ऊँचाई सवा पाँच
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए डॉ. संजीव सराफ
सौ धनुष थी, इससे आप एक मंजिल की ऊँचाई का अनुमान लगा सकते हैं।
डॉ. नलिन के. शास्त्री, बोधगया ने इस बात को स्पष्ट किया कि हमें दूसरों के द्वारा कहे हुए मन्तव्यों की क्यों आवश्यकता पड़ती है। हम दूसरों के द्वारा कहे गये प्रमाणों को इसलिये एकत्रित करते हैं क्योंकि हमारी यह स्थिति रही है कि कालिदास को महाकवि हमनें तभी स्वीकार किया जब मैक्समूलर ने उसको स्वीकार किया। इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि भगवान आदिनाथ की प्राचीनता को एक मानक भाषा, मानक विचार एवं मानक प्रमाण मिले। भगवान आदिनाथ को भारतीय चिंतन के विशिष्ट प्रतीक के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है।
डॉ. रमा जैन, छतरपुर ने विभिन्न सन्दर्भों के आधार पर भगवान आदिनाथ की प्राचीनता को व्याख्यापित किया। संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहिन इन्दु जैन ने निर्वाण महोत्सव की उपयोगिता को स्पष्ट करते हुए आधुनिक कृषि के बिगड़ते हुए रूप पर चिंता प्रकट की एवं ब्र. स्वाति जैन ने गिरते हुए नैतिक जीवन को देखकर भगवान आदिनाथ के सिद्धान्तों को जन जन तक पहुँचाने की बात कही। पं. जयसेन जैन, इन्दौर (सम्पादक- सन्मति वाणी), पं. खेमचन्द जैन, जबलपुर, श्री सत्येन्द्र जैन, जबलपुर आदि ने भी अपने सारगर्भित, मौलिक विचार प्रकट किये। प्राचार्य ताराचन्द जैन, बिलासपुर ने यह प्रस्ताव किया कि हमें इस बात का प्रचार प्रसार करना चाहिये की भारत का नाम ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर ही रखा गया। ब्र. रवीन्द्रकुमार जैन, हस्तिनापुर ने सभी विद्वानों के प्रति आभार व्यक्त किया, आशीर्वाद एवं मंगल कामनाएँ की। पं. शिवचरनलाल जैन, मैनपुरी ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि आज के युग में भी भगवान ऋषभदेव की संस्कृति प्रवाहमान है। आज भी व्यक्ति यह कहते हुए मिलता है कि यह भगवान का कार्य है। आपने भोगभूमि से कर्मभूमि की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया। पीठाधीश क्षु. श्री मोतीसागरजी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि हम सभी धर्म की छाया में रहकर जीवन जीने का अभ्यास कर रहे हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ भी इस दिशा में एक प्रयास है। आपने जैन साधुओं के विहार में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों की ओर ध्यान आकर्षित किया एवं सभी विद्वानों के प्रति आभार एवं शुभाशीषों के साथ ही संगोष्ठी के समापन की घोषणा की। संगोष्ठी को पूज्य माताजी का ससंघ सान्निध्य प्राप्त था ।
संगोष्ठी के आयोजक तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ के महामंत्री डॉ. अनुपम जैन ने बताया कि 33 विशिष्ट विद्वानों की गौरवपूर्ण उपस्थिति ने इस संगोष्ठी की अलग पहचान बनाई।
सहायक प्राध्यापिका - संस्कृत महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य स्वशासी महाविद्यालय, ग्वालियर
अर्हत् वचन, जुलाई 2000
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