________________
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
वर्ष - 12, अंक - 3, जुलाई 2000, 65 - 66 जैनागम में प्राणायाम एवं ध्यान
-पारसमल अग्रवाल*
नया स्तम्भ - आगम का प्रकाश : जीवन का विकास
अर्हत् वचन की लोकप्रियता एवं समसामयिक उपयोगिता में अभिवृद्धि एवं इसके पाठकों को जिनागम के गूढ़ रहस्यों से सहज परिचित कराने हेतु हम एक स्तम्भ 'आगम का प्रकाश - जीवन का विकास' प्रारम्भ कर रहे हैं।
इस स्तम्भ के अन्तर्गत हम ऐसे लघु शोध आलेख या टिप्पणी प्रकाशित करेंगे जिसमें निम्नांकित विशेषताएँ हों - 1. जैनागम का कोई मूल उद्धरण अवश्य हो। 2. हमारे जीवन में सीधा उपयोगी हो। अर्हत् वचन के पाठक इस स्थल पर अपने जीवन के विकास /सुख शांति
के लिये कुछ प्राप्त करने के उद्देश्य से इस अंक की उत्सुक्ता से प्रतीक्षा करें व उन्हें अवश्य
इससे कुछ शांति मिले। 3. जैन दर्शन के कोई कम प्रचारित या दबे हुए पक्ष की जीवन में महत्ता उद्घाटित होती हो। 4. नवीन वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हो।
उपर्युक्त 4 बिन्दुओं में प्रथम दो आवश्यक हैं व शेष 2 आवश्यक तो नहीं किन्तु हो जाये । तो अच्छा है।
-सम्पादक
आज इस वैज्ञानिक युग में व पश्चिम जगत में ध्यान (Meditation) एवं प्राणायाम (Breathing Excercise) की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के आधार पर महत्ता बढ़ती जा रही है। इन विषयों पर दर्जनों पुस्तकें अमेरिका के एक सामान्य से बुक स्टोर पर भी दिखाई देती हैं। अधिकांश जीवनोपयोगी पत्रिकाओं का कोई भी अंक इन विषयों के किसी बिन्दु को छुए बिना पूर्ण नहीं होता है। दो प्रश्न यहाँ उपस्थित होते हैं - आत्मप्रधान जैन दर्शन के आगम इनके बारे में क्या कहते हैं? जैनागम के अनुसार क्या हमारे जीवन में इनकी उपयोगिता है ? इस लेख में हम प्राणायाम के सन्दर्भ मे इन प्रश्नों के उत्तर देखेंगे।
कई व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि जैनाचार्यों ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया है। उदाहरण के लिये आदरणीय पं. बलभद्रजी की प्रसिद्ध पुस्तक 'जैन धर्म का सरल परिचय' से ऐसा ही लगेगा कि जैनाचार्यों ने प्राणायाम का विरोध किया है। 1 निम्नांकित श्लोक व कथन प्राणायाम का विरोध दर्शाने के लिये सामान्यतया प्रयुक्त होते हैं -
"प्राणाद्यामेन विक्षिप्तं मन: स्वास्थ्यं न विन्दति" 2 अनुवाद : प्राणायाम से विक्षिप्त मन स्वास्थ्य को नहीं प्राप्त होता है।
"प्राणस्थायमने पीड़ा तस्यां स्यादातसंभवः।
तेन प्रच्याव्यते नूनं ज्ञाततत्त्वोऽपि लक्ष्यतः॥" 3 अनुवाद : प्राणायाम में प्राण (वायु) के रोकने (आयमन) से पीड़ा होती है और इसमें आर्तध्यान संभावित है और उस आर्तध्यान से तत्वज्ञानी भी अपने लक्ष्य (समाधिस्वरूप शुद्ध भाव) से छुड़ाया जाता है।
अनेकान्त दर्शन की मान्यता को यदि हम एक-दो श्लोकों से ही समझना चाहें
* Chemical Physics Group, Department of Chemistry, Okalahoma State University, STILLWATER
OK 74078 U.S.A.