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तो कोई यह भी श्लोक बता सकता है कि जैन दर्शन में तो दया - दान को भी शुभबंध कहा है व इनको छुड़ाने की प्रेरणा दी है। किन्तु हम यह भी जानते हैं कि ऐसे कई श्लोक हमें देखने को मिलेंगे जहाँ साधक को प्रारम्भिक भूमिका में दया - दान के लिये प्रेरणा दी है।
इसी तरह आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में 30 वें सर्ग में प्राणायाम का चन्द श्लोकों में ऋणात्मक पक्ष बताकर प्राणायाम से भी आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है किन्तु 29 वें सर्ग में 100 श्लोकों द्वारा प्राणायाम का वर्णन किया है, समर्थन किया है व महिमा गाई है। उदाहरण -
स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुः स्थैर्यम्।
पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न सन्देहः॥ जन्मशतजनितमग्रं प्राणायामाद्विलीयते पापम।
नाडीयुगलस्यान्ते यतेर्जिताक्षरस्य वीरस्य। 4 अनुवाद : पवन के प्रचार करने में चतुर योगी कामरूपी विषयक्त मन को जीतता है व समस्त रोगों का क्षय करके शरीर में स्थिरता करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। इस पवन के साधनरूप प्राणायाम से जीती हैं इन्द्रियां जिसने ऐसे धीर वीर यति के सैकड़ों जन्मों के संचित किये हुए तीव्र पाप दो घड़ी के भीतर - भीतर लय (नष्ट) हो जाते हैं।
__ इस सर्ग के तीसरे श्लोक में प्राणायाम के तीन लक्षण बताये हैं - पूरक (नाक द्वारा वायु भरना), कुम्भक (वायु को रोकना) एवं रेचक (वायु छोड़ना)। देखिये -
विद्या लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः।
पूरक: कुम्भकाश्चैव रेचकस्तदनन्तरम्॥ आगे के श्लोकों में पूरक, कुम्भक एवं रेचक का विस्तार आचार्य ने किया है।
प्रश्न यह उठता है कि यह विरोध एवं समर्थन एक ही आचार्य द्वारा एक ही ग्रन्थ में एक साथ क्यों? उत्तर स्पष्ट है - गृहस्थ की एवं सामान्य योगी की भूमिका में प्राणायाम उपयोगी है किन्तु आगे पहुँचे हुए योगी की भूमिका में श्वांस भरने, श्वांस रोकने व श्वांस छोड़ने का उद्यम करना उसके उच्च स्तर के ध्यान में उपयोगी एवं आवश्यक न होकर बाधक हो सकता है। जहाँ ध्यान, ध्याता व ध्येय का विकल्प न हो वहाँ श्वांस की तरफ ध्यान देने की बात बहुत दूर रह जाती है।
सारांश यह है कि हमें हमारे आचार्यों का पूर्ण अभिप्राय समझकर हमारी भूमिका के अनुसार आरोग्य व मन को स्थिर करने में उपयोगी प्राणायाम को अपनाना है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि आज के कई प्रयोग यह सिद्ध कर रहे हैं कि ऐसा करने वाले बीमार कम होते हैं व उनको दवा खर्च बहुत कम होता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ज्ञानी की मान्यता में तो त्रिकालीध्रुव आत्म तत्त्व ही उपादेय होता है। सन्दर्भ 1. बलभद्र जैन, जैन धर्म का सरल परिचय, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, 1996, पृ. 257 2. आचार्य शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव, श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, गुजरात, वि.सं.
2051, सर्ग 30, श्लोक 4, पृ. 237 3. वही, सर्ग 30, श्लोक 9, पृ. 238 4. वही, सर्ग 29, श्लोक 99 - 100. पृ. 235 - 236 5. वही, सर्ग 29, श्लोक 3, पृ. 222
प्राप्त - 4.5.2000
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अर्हत् वचन, जुलाई 2000