________________
टिप्पणी-1
1 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
जैन धर्म और विज्ञान*
- आर.आर. नांदगांवकर **
भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती समारोह के पावन दिवस पर तथा कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के पुरस्कार वितरण समारोह के शुभ अवसर पर आयोजित संगोष्ठी के द्वितीय सत्र का विषय 'जैन धर्म और विज्ञान' रखा है।
धर्म और विज्ञान का कोई संबंध हो सकता है क्या? इनमें कोई समानता हो सकती है क्या ? यह चुम्बक के दो ध्रुवों जैसे विरोधाभासी हैं? क्या एक की धारणा करने से दूसरे पर कुछ प्रभाव पड़ता है? आदि अनेक प्रश्न सुधी श्रोताओं को दिग्भ्रमित कर सकते हैं। इन पर शांतिपूर्वक सोचना, मनन चिंतन करना आवश्यक है। मेरे पूर्व एक वक्ता (पं. रतनलालजी जैन साहब) ने कहा था कि 'वस्तु स्वभाव ही धर्म है।' बस! इसी को आगे लेकर चलना चाहिये। विज्ञान क्या करता है? वस्तु का स्वभाव ही तो उद्घाटित करता है। विज्ञान कहता है कि नमक खारा है, शक्कर मीठी है, नीम कड़वा है, यह इन वस्तुओं के स्वभाव ही तो दर्शाते हैं। अब! यह सोचिये कि मनुष्य भी तो इस संसार में एक वस्तु ही तो है। जब, इस मनुष्यरूपी वस्तु का स्वभाव जान जाओगे तो उसका धर्म भी जान जाओगे। सदियों से मनुष्य अपने को जानने की कोशिश कर रहा है, पर सही रास्ता न मिलने के कारण 'चौरासी लाख योनियों में' जन्म - मरण के चक्र में उलझ कर रह गया है। मानव विकास की श्रृंखला में हम भी निरन्तर बदलते रहे हैं। हमारा शरीर आय. शारीरिक संहनन, शक्ति, सामर्थ्य सभी तो बदलते रहे हैं। भगवान ऋषभदेव कालीन मनुष्य की आयु 'लाख पूर्व वर्षों में तथा ऊँचाई 500 धनुष प्रमाण से बदलते हुए आज केवल कुछ 'दशक वर्ष' और कुछ 'हाथ' में आ गई है। विज्ञान की क्रांति ने हमारे आस - पास जो विराट स्वरूप प्रस्तुत किया उसके कारण हम अपना बौनापन महसूस नहीं कर रहे हैं। आप जो भी कुछ देख रहे हैं, वे सारी की सारी वस्तुएं विज्ञान की देन हैं। जब हम इस चकाचौंध के बदलते विज्ञानमय वस्तुओं को देखते हैं तब हम अपने में स्थित एक अविनाशी, चिरस्वरूपी वस्तु को भूल जाते हैं। केवल, आत्मा ही आजतक किसी भी काल या समय में बदली नहीं है। बदलता है तो केवल पर्याय या शरीर। आपके इन्दौर शहर के होलकर विज्ञान महाविद्यालय के बारे में समाचार पत्रों में प्रकाशित एक समाचार पर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा। वहाँ पढ़ने वाली दो लड़कियों को अपने गत जन्म का स्मरण हो गया कि वे दोनों पूर्वजन्म में सगी बहनें थीं। आज उनका शरीर तो बदल गया है पर उनकी आत्मा वही अजर - अमर है। मनुष्य का यह शरीर तो इस संसार में एक क्षण के बराबर साथ देता है। मनुष्य के मोह, माया, लोभ के कारण वह दिन रात एक करके जो कुछ चल - अचल सम्पत्ति, दौलत इकट्ठा करता है, वे सब यहीं धरी रह जाती हैं। जब भी किसी की मृत्यु होती है, चाहे कितना भी प्रिय व्यक्ति हो, आंखों का तारा हो, नयन सुखकारी हो, एक क्षण में नष्ट हो जाता है और जल्दी से जल्दी चक्रतीर्थ पहुँचाने की बात करते हैं। यही स्थिति विश्वविजेता सिकन्दर की हुई थी,
और तो और जब चक्रवर्ती सम्राट भरत अपनी तीन लोक की विजयी यात्रा करने के बाद विजया पर्वत पर अपना नाम अंकित करने गये तो उन्होंने स्वयं अनुभव किया कि उनके पूर्व भी बहुत हो गये हैं। इस प्रकार यह जीवन 'असार' है, 'केवल माया है', इस पर रोना - धोना व्यर्थ है।
अर्हत् वचन, जुलाई 2000