________________
होना चाहिये। श्रेष्ठ राजा की दानशीलता से पहले के दरिद्र मनुष्य भी कुबेर के समान आचरण करते थे। 19 राजा संधि, विग्रहादि गुणों से सुशोभित हो। 20 पुण्यवान राजा का शरीर और राज्य बिना वैद्य एवं मंत्री के भी कुशल रहते हैं। राजा का धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शुरवीरता प्राणियों की रक्षा करने में, आय सख में और शरीर भोगोपभोग में वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। 21 राजा के पुण्य की वृद्धि दूसरे के आधीन न हो, कभी नष्ट न हो और उसमें किसी तरह की बाधा न आये ताकि वह तृष्णारहित होकर गुणों का पोषण करता हुआ सुख से रहे। 22 जिस राजा के वचन में सत्यता, चित्त में दया, धार्मिक कार्यों में निर्मलता हो तथा जो प्रजा की अपने गुणों के समान रक्षा करे, वह राजर्षि है। 23 सज्जनता राजा का स्वाभाविक गुण हो। प्राणहरण करने वाले शत्रु पर भी वह विकार को प्राप्त न हो। 24 बुद्धिमान राजा सब लोगों को गुणों के द्वारा अपने में अनुरक्त बनाये ताकि सब लागे उसे प्रसन्न रखें। 25 जिस प्रकार मुनियों में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार सदाचारी और शास्त्रज्ञान से सुशोभित राजा में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं तथा जिस प्रकार संस्कार किये हुए मणि सुशोभित होता है उसी प्रकार राजा अनेक गुणों से सुशोभित होता है।26 नीति को जानने वाले राजा को इन्द्र और यम के समान कहते हैं किन्तु इन्द्र के समान राजा श्रेष्ठ है क्योंकि उसकी प्रजा गुणवती होती है और राज्य में कोई दंड देने योग्य नहीं होता है। 27 राजा न्यायोपार्जित धन के द्वारा याचकों के समूह को संतुष्ट करे। 28 समीचीन मार्ग में चलने वाले राजा के अर्थ और काम भी धर्मयुक्त होते हैं अत: वह धर्ममय होता है। 29 उत्तम राजा के वचनों में शांति, चित्त में दया, शरीर में तेज, बुद्धि में नीति, दान में धन, जिनेन्द्र भगवान में भक्ति तथा शत्रुओं में प्रताप रहता है। 30 जिस प्रकार संसार का हित करने वाले सब प्रकार के धान्य समामय 31 की वर्षा को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं उसी प्रकार समस्त गुण बुद्धि को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं। 32 राजा का मानभंग नहीं होना चाहिये। जिस प्रकार दांत का टूट जाना सिंह की महिमा को तिरोहित कर देता है अर्थात् छिपा देता है। 33 नीतिशास्त्र सम्बन्धी अर्थ का निकाय करने में राजा का चरित्र उदाहरण 34 स्वरूप होना चाहिये। उत्तम राजा के राज्य में प्रजा भी न्याय का उल्लंघन नहीं करती, राजा न्याय का उल्लंघन नहीं करता। जिस प्रकार वर्षा से लताएँ बढ़ती हैं, उसी प्रकार राजा की नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ती है। 35 जिस प्रकार आगे की संख्या पिछली संख्याओं से बडी होती हैं उसी प्रकार श्रेष्ठ राजा पिछले समस्त राजाओं को अपने गुणों
और स्थानों से जीतकर बड़ा होता है। 36 उसकी समस्त ऋद्धियाँ पुरुषार्थ के आधीन रहती हैं। वह मंत्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा आदि बाह्य प्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र का विचार करें। तीन शक्तियों और सिद्धियों से उसे सदा योग और क्षेम का समागम होता रहे साथ ही संधि विग्रह आदि छह गुणों की अनुकुलता रखें। 37 अच्छे राजा के राज्य में प्रजा को अयुक्ति आदि पाँच तरह की बाधाओं में से किसी भी प्रकार की बाधा नहीं रहती है। 38 उत्तम राजा का नित्य उदय होता रहता है। उसका मंडल विशुद्ध (शत्रु रहित) और अखंड होता है तथा प्रताप निरन्तर बढ़ता है। 39 ऐसे राजा की रूपाद्रि सम्पत्ति उसे अन्य मनुष्यों के समान कुमार्ग में नहीं ले जाती है। 40 शम और व्यायाम राजा के योग और क्षेम की प्राप्ति के साधन हैं। 41
उपर्युक्त गुणों के आधार पर कहा जा सकता है कि राजा सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों में सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति होना चाहिये। इस प्रकार के विचार मेरी भावना में कवि जुगलकिशोरजी ने लिखते हुए व्यक्त किये हैं -
'धर्मनिष्ठ होकर भी राजा न्याय प्रजा का किया करे अर्हत् वचन, जुलाई 2000