Book Title: Arhat Vachan 2000 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 17
________________ इसके स्थान पर जैनाचार्यों ने वनस्पतियों, खनिज, लवण, क्षार, रत्न आदि का विशेष रूप से चिकित्सा हेतु प्रयोग किया। जैन चिकित्सा पद्धति के विभिन्न ग्रंथों में इसके प्रयोग का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। जैसे मूर्छा, ज्वर आदि रोगों के उपचार में चन्दन जल के छींटों से जाग्रत करना, चन्दन आदि शीतल लेपों द्वारा ज्वर - मन्द करना, कपूर की भस्म से थकान दूर करना आदि।25 5. जैन सिद्धान्तानुसार रात्रिभोजन निषेध, पानी को छानकर पीना, जमीकन्द का प्रयोग न करना आदि जैसे सिद्धान्तों का युक्तिसंगत आयुर्वेदिक कारण बताया गया है। यह निषेध आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में रोग निदान का एक साधन है। इसकी चर्चा तर्कसंगत ढंग से जैन आयुर्वेदीय ग्रंथों में की गई है। 6. जैनाचार्यों ने स्वानुभूत एवं प्रायोगिक प्रत्यक्षीकृत प्रयोगों और साधनों द्वारा रोग मुक्ति के उपाय बताये हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये परीक्षण के उपरान्त सफल सिद्ध हुए प्रयोगों और उपायों को उन्होंने लिपिबद्ध कर दिया। जैन आचार्यों ने इस कार्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 7. जैन धर्म का सिद्धान्त है कि शारीरिक स्वास्थ्य के माध्यम से आत्मिक स्वास्थ्य व सुख प्राप्त करना। इसके लिये जैनाचार्यों ने भक्ष्याभक्ष्य, सेव्यासेव्य आदि पदार्थों का उपदेश किया जिसका उद्देश्य जीवन का अंतिम लक्ष्य पारमार्थिक स्वास्थ्य प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना है। 8. जैनाचार्यों द्वारा रचित आयुर्वेदीय ग्रंथों में प्रदेश विशेष में होने वाली स्थानीय वनोषधियों के प्रयोग भी मिलते हैं। यदि इस क्षेत्र में अनुसंधान व खोज की जाये तो आज भी हमें वे औषधियाँ कुछ हद तक प्राप्त हो सकती हैं जो उपयोग व व्यवहार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। 9. अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करते हुए पुष्पायुर्वेद जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना आचार्य समन्तभद्र द्वारा की गई, जिसमें 180000 पराग सहित पुष्पों द्वारा औषधि निर्माण, जैन आचार्यों द्वारा रचित आयुर्वेदिक ग्रंथ की महत्वपूर्ण विशेषता है। इससे एकेन्द्रिय जीव की भी हिंसा नहीं होती। लेकिन दुख का विषय है कि इतना महत्वपूर्ण ग्रंथ आज अनुपलब्ध है। इस ग्रंथ की जानकारी अन्य ग्रंथों (पश्चात् के वैद्यक ग्रंथों) से प्राप्त होती है। यदि समर्पित प्रयासों के द्वारा ग्रंथों की खोज की जाये तो उक्त ग्रंथ के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त हो सकती है, ऐसा मेरा विश्वास है। जिससे चिकित्सा जगत में क्रांतिकारी विकास एवं परिवर्तन आ सकता है। 10. जनसाधारण में रोग निरोधक उपायों और स्वास्थ्यवृत सदवृत के प्रचार द्वारा Preventive Medicine (परिरक्षक औषधियों) का व्यावहारिक उपयोग जैन आयुर्वेद साहित्य या जैन आचार्यों की देन है। 11. जैन वैद्यक ग्रंथ अधिकांशत: प्रादेशिक भाषाओं में उपलब्ध हैं। यही लोकजीवन के व्यवहार और प्रचार का माध्यम था। अत: जैन आचार्यों ने अधिकांशत: उन्हीं भाषाओं में ग्रंथ रचना की जिससे चिकित्सा प्रणाली का जनसामान्य में प्रयोग हो सके। वे इसका लाभ उठा सकें। 12. जैनाचार्यों की चिकित्सा पद्धति की प्रमुख विशेषता यह है कि वे अपने आचार - व्यवहार में उन नियमों का पालन करते थे जिससे शरीर निरोगी रहे। अर्थात् रोग की व्याधियाँ अर्हत् वचन, जुलाई 2000

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