Book Title: Arhat Vachan 2000 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 19
________________ का जो मौलिक योगदान है उससे भारतीय आयुर्वेद साहित्य को समृद्धि मिली है। इस पर नये-नये अनुसंधान व खोज चिकित्सा जगत के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यह कार्य जनहित व समाजहित में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। पूर्ववर्ती कार्यों का संक्षिप्त पुनरावलोकन इस दृष्टि से लेखिका द्वारा प्रबन्ध रचना से पूर्ववर्ती शोध का संक्षिप्त सर्वेक्षण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। जैनाचार्यों ने अपने शिष्यों को काय चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, रसायन शास्त्र, वाजीकरण, जैन आयुर्वेद के आठ अंगों के नियमों में पारंगत करने के उद्देश्य से स्वतंत्र रूप से पूर्णतः आयुर्वेदीय ग्रंथों की रचना के साथ-साथ प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रंथों पर टीकायें भी लिखीं हैं। 26 अतः इस विशाल व महत्वपूर्ण जैन आयुर्वेद साहित्य का अध्ययन भारतीय आयुर्वेद के सम्यक ज्ञान हेतु आवश्यक है। जैन साहित्य में आयुर्वेद की समृद्ध परम्परा की ओर विशेष रूप से सर्वप्रथम विश्व समुदाय का ध्यान विद्यावाचस्पति पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा आकृष्ट किया गया। इसी के माध्यम से ज्ञात हुआ कि जैन साहित्य में आयुर्वेद की परम्परा बहुत प्राचीन व समृद्ध है। इसके पश्चात् अनेक आयुर्वेद विषयक हस्तलिखित ग्रंथों की खोजकर उनके मुद्रण / प्रकाशन की श्रृंखला प्रारंभ हो गयी। जैसे 1940 में मुम्बई से योगचिन्तामणि हर्ष कीर्तिसूरिकृत ( 1605 ई.), जोधपुर व पूना यशस्तिलक चम्पूकाव्य नयनसुखकृत (1592 15 वीं श) 1967 दुर्गदेवकृत ( 1032 ई.), सिंधी जैन ग्रंथ सीरीज में योगरत्नमाला पर लघुविवृत्ति टीका गुणाकरकृत (1239 ई.), भंडारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना आदि स्थानों से आयुर्वेदिक हस्तलिखित ग्रंथों का प्रकाशन किया गया है। इसी प्रकार जैन शास्त्र भंडारों में भरे पड़े हस्तलिखित ग्रंथों की सूची बनाकर प्रकाशित की गयी। जिससे आयुर्वेद सोमदेवकृत (10 वीं 21 ), 1959 में बीकानेर से वैद्यमनोत्सव ई.), 1961 में बम्बई से रसचिंतामणि में मरणकण्डिका अर्धकांड अनन्त देवसूरिकृत ( 14 वीं, विषयक ग्रंथ भी प्रकाश में आये। जैसे राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ सूची भाग 1 से 5 तक, (1954, 1957,.. . ) जैन सिद्धान्त भवन ग्रंथावली प्राच्य ग्रंथागार आरा की विवरणात्मक सूची (1987)। इसी के साथ आयुर्वेद विषय पर अनेक विद्वानों ने अपनी कलम चलाई व इतिहास के गर्भ में छुपे जैन आयुर्वेद साहित्य को प्रकाश में लाया गया। लेकिन जितनी विशाल मात्रा में आयुर्वेद विषयक ग्रंथों की रचना जैनाचार्यों ने की है उतनी विस्तृतता के साथ खोज, अनुसंधान, मुद्रण, संपादन, प्रकाशन का कार्य नहीं हो पाया। फिर भी जिन विद्वानों ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलाई उनमें से नाथूराम प्रेमी (1956), जुगल किशोर 'मुख्तार' (1956), मुनि कां सागर (1959), हीरालाल जैन (1960) कैलाशचन्द्र शास्त्री (1960), प्रियवृत शर्मा (1962), जगदीशचन्द्र जैन 28 (1965), गोकुलचन्द्र जैन (1967), अत्रिदेव विद्यालंकार (1972), नेमीचन्द्र शास्त्री (1974), विद्याधर जोहरापुरकर (1975), प्रियवृत शर्मा (1975), साध्वी संघमित्रा (1976), वागीश्वर शुक्ल (1977), राजकुमार जैन (आचार्य) (1978), डॉ. मोहनचन्द्र दलितचन्द्र देसाई (1989), बनारसीलाल गौड़ (1989), लालचन्द्र हरिश्चन्द्र जैन (1997) आदि की पुस्तकों में जैन साहित्य में आयुर्वेद विषयक सामग्री प्राप्त होती है। इनका विस्तृत विवरण लेखिका के शोध प्रबन्ध में उपलब्ध है। इन पुस्तकों में जब भारतीय साहित्य, संस्कृति, समाज, इतिहास विषयक सामग्री का वर्णन लेखकों ने किया तो उसमें आयुर्वेद संबंधी विषय का भी स्थान स्थान पर विवरण दिया है, जिससे हमें आंशिक रूप से जैन आयुर्वेदाचार्यों व जैन आयुर्वेद साहित्य की जानकारी प्राप्त होती है। अर्हत् वचन, जुलाई 2000 - - - - 17

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