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व शोधकार्यों ने 21 वीं श में जैन साहित्य में आयुर्वेद विषय पर नये दृष्टिकोण से देखने व इतिहास के गर्भ में छुपे तथ्यों को उजागर करने में महती भूमिका अदा की है।
पूर्ववर्ती शोध कार्यों का सम्यक् उपयोग करते हुए तथा अब तक हुवे कार्यों को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से, इस क्षेत्र में किये गये प्रयासों की विश्रृंखलित कड़ियों को सूत्रबद्ध करने के उद्देश्य से ही लेखिका द्वारा शोध कार्य हेतु यह विषय चयन किया गया।
शोध की भावी दिशाएँ -
1. देश के समस्त ग्रंथ भंडारों, सरस्वती भंडारों, व्यक्तिगत संग्रहों का व्यापक सर्वेक्षण कर उनमें निहित आयुर्वेद विषयक ग्रंथों का सूचीकरण एवं संरक्षण ।
2. विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध पाण्डुलिपियों का हिन्दी / अंग्रेजी भाषा में अनुवाद कर उन्हें विद्वत् समुदाय की परिधि में लाना ।
3. इन नवीन अनुवादित कृतियों का आयुर्वेद के विशेषज्ञ विद्वानों तथा भाषाविदों के साथ संयुक्त रूप से आलोचनात्मक अध्ययन किया जाये, जिससे विभिन्न जटिल एवं असाध्य रोगों के निदान की अनेकानेक नई युक्तियाँ प्रकाश में आ सकें।
4. जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत आयुर्वेद विषयक ग्रंथों का इतिहासकारों एवं आयुर्वेदाचार्यों द्वारा संयुक्त रूप से अध्ययन किया जाये जिससे विभिन्न रोगों के लक्षणों का एवं उनके निदान के उपायों (विशिष्ट तकनीकों) को सर्वप्रथम लिपिबद्ध करने वाले आयुर्वेदाचार्यों का निर्धारण करना। जिससे ऐतिहासिक दृष्टि से जैनाचार्यों के योगदान को निश्चित किया जा सकेगा।
5. वर्तमान में प्रचलित ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में निदान की जो प्रक्रिया अपनाई जाती है उसके आनुषांगिक प्रभावों से संपूर्ण विश्व चिंतित है। आयुर्वेद चिकित्सा की रोग के समूल विनाश की विशिष्ट पद्धति के कारण यदि हम असाध्य रोगों के निदान अथवा ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति द्वारा साध्य रोगों के वैकल्पिक निदान आयुर्वेद में ढूंढ सके तो यह मानवता की विशिष्ट सेवा होगी। जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के प्रकाश में आने पर हमें अनेक रोगों के निदानों की प्राप्ति अवश्य होगी।
मुझे विश्वास है कि एक विस्तृत परियोजना के तहत् आयुर्वेद विशेषज्ञ, भाषाविद्, इतिहासकार एवं जैन दर्शन के मर्मज्ञ आयुर्वेद विषयक विपुल जैन साहित्य के पुनरुद्धार की योजना अवश्य बनायेंगे। यह कार्य व्यापक, जटिल, श्रमसाध्य होने के साथ-साथ खर्चीला अवश्य है किन्तु असंभव नहीं । आवश्यकता है शोधकर्ताओं के समर्पण एवं समीचीन नियोजन की। यदि ऐसी कोई परियोजना किसी विश्वविद्यालय अथवा संस्थान द्वारा हस्तगत की जाती है तो लेखिका का उसमें सम्यक् सहयोग रहेगा। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि इस लेख को पढ़कर सुधी पाठकों, विद्वानों, इतिहासकारों, शोधार्थियों का ध्यान उक्त विषय की ओर निश्चित रूप से जायेगा और इस क्षेत्र में आने वाले समय में कुछ निर्णयात्मक शोध कार्य हो पायेगा, जिससे इतिहास व आयुर्वेद चिकित्सा क्षेत्र में नये अध्याय या नवीन पृष्ठ जुड़ पायेंगे।
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
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