Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 8
________________ आभार उपाध्याय मेघविजयजी प्रणीत अर्हद्गीता को आपके पठन, पाठन तथा चिन्तन मनन हेतु प्रस्तुत करते हुए अपार हर्ष हो रहा है। इसमें व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, तर्क, वेदान्त, वैष्णवमत, आयुर्वेद, पिंगल, योग, सभी के माध्यम से अध्यात्म विद्यामय जैन दर्शन की व्याख्या की गई है। ऐसा दुर्लभ ग्रन्थरत्न अभी तक प्रकाश में नही आया था। इसके मूल रूप की केवल १०० प्रतियां सन् १९३४ में धूलीया (महाराष्ट्र) से प्रकाशित हुई थी। उसमें पाठ की अशुद्धियाँ बहुत रह गई हैं जिन्हें शुद्ध कर अन्वय, टीका एवं आवश्यक विवेचन के साथ प्रकाशित करने की योजना जैन दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान् बहुश्रुत स्व. सेठ अमृतलाल कालिदास दोशी ने बनाई। उन्होंने जैन साहित्य विकास मंडल के माध्यम से अभी तक अनेकों ग्रन्थोंका स्वयं प्रणयन किया है तथा दूसरों को प्रोत्साहन दिया है। उपाध्यायजी द्वारा लक्ष्मी एवं सरस्वती के अविरोध वाली बात सेठ अमृतलालजी पर खरी उतरती है। “वैरं लक्ष्म्याः सरस्वत्या नैतत्प्रामाणिकं वचः । ज्ञानधर्मभृतो वश्या लक्ष्मीन जडरागिणी ॥" "लोक में यह प्रचलित है कि लक्ष्मी का सरस्वती के साथ वैर है यह प्रामाणिक उक्ति नहीं है । लक्ष्मी जड़ अज्ञानी को नही चाहती है वह तो ज्ञान धर्म युक्त पुरुष क वश में रहती है।" वे सरस्वती एवं लक्ष्मी के संगम स्थल तथा अधिकारी विद्वान थे। उन्होंने अर्हद्गीता को हिन्दी भाषान्तरित करने की अपनी इच्छा को पूज्य पं.भद्रंकरविजयजी गणिवर के समक्ष निवेदित की । गुरुदेव की मुझ अकिंचन पर असीम कृपा रही है अतः मेरी अपात्रता की जानकारी रखते हुए भी उन्होंने मुझे यह कार्य सौंपा। "क्षणमपि सज्जन सगंतिरेका भवति भवार्णव तरणे नौका" की उक्ति के अनुसार मुझे गुरुदेव के प्रिय शिष्यद्वय पू. गुरुवर्य कल्याणप्रभविजयजी एवं पू. कुन्दकुन्दीवजयजी का सहारा मिला । इन्होंने मेरे बालप्रयास को परिमार्जित कर इस रूप में आपके सामने रखवाने का वंद्य प्रयास किया। अहंद्गीता के अंतिम ९ अध्याय पू. मुनिराज धुरन्धरविजयजी के निर्देशन में परिमार्जित हुए हैं। गुरुदेव की मर्म भेदिनी दृष्टि एवं शक्ति का पूर्ण सहारा मुझे मिला है तब यह नवनीत सुपाच्य बन सका है। मैं इस हेतु पू. गुरुदेवों का आजन्म ऋणी रहूँगा। टीका के संशोधन में पू. मुनिराज गुणरत्नविजयजी महाराज व पं. भूरालालजी शर्मा ज्योतिषाचार्य ने जो अमूल्य सहायता दी है उसे भुलाया नहीं जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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