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अनेकान्त
[किरण
होनेसे खेद खिश रहता है। दूसरोंको बुरा भला बचन बोलना, गाली देना, किसीकी सम्पत्तिका परहरण कहता है। अपने स्वार्थकी लिप्सामें दूसरेके हित करना, किसीको मानसिक पीड़ा पहुँचाना अथवा ऐसा अहित होनेकी परवाह नहीं करता, और न खुद उपाय करना जिसमे दूसरेको नुकसान उठाना पड़े, तथा अपना ही हित साधन कर सकता है, ऐसे व्यक्ति- लोकमे निन्दा वा अपयशका पात्र बनना पड़े, भादि में क्षमा रूप धास्मगुणका विकास नहीं हो पाता, और कोई मनुष्य किसी मनुष्यको अपशब्द कहता है गाली न उसकी महत्ताका उसे प्राभास ही हो पाता है। देता है जिससे दूसरा मनुष्य उत्पीड़ित होता है अपने क्रोधाग्नि जिस व्यक्किमें उदिन होती है वह सबसे पहले अहंकारकी भावना पर प्राघात हुअा अनुभव करता है, उस व्यक्तिके धैर्यादि गुणोंका विनाश करती है-उन्हें अपने अपमानको महसूस करता हुश्रा क्रोधाग्निसे उद्दीपित जखाती है-और उसे प्राण रहित निश्चेष्ट बना देती है। हो जाना है. और उमसे अपने अपमानका बदला लेनेके क्रोधी व्यक्ति पहले अपना अपकार करता है, बादमें लिये उतारू हो जाता है। उन दोनों में परस्पर इतना अधिक दूसरेका अपकार हो या नहीं, यह उसके भवितव्यकी झगड़ा बढ़ जाता है कि दोनोंको एक दूसरेके जीवनसे बात है। जैसे किसी व्यक्किने क्रोध वश अपराधीको भी हाथ धोना पड़ता है, क्रोधसे होने वाली यह सब सजा देने के लिये भागका अंगारा उठाकर फेंकने की क्रियाएं कितना अनर्थ करती हैं यह अज्ञानी नहीं समझता कोशिश की। पागका अंगारा उठाते ही उस व्यक्तिका और न कार्य कार्यका कुछ विचार ही करता है।
पहले स्वयं जल जाता है। बादमें जिस व्यक्तिको परन्तु ज्ञानी (सहिष्ट) क्रोध और उससे होने वाले अवअपराधी समझकर उसे जलाने के लिये अग्नि फेंकी गई है श्यम्भावी विनाश परिणामसे परिचित है. वह 'क्रोधो मूलवह उससे जले या न जलं यह उसके भवितव्यके प्राधीन मननां' की उक्तिमं भी अनभिज्ञ नहीं है। वह सोचता है। परन्तु भाग फेंकने वाला व्यक्ति तो पहले स्वयं जल है कि जिस गाली या अपशब्दके उच्चारणसे क्रोधका यह ही जाता है। इसी तरह क्रोधी पहले अपना अपकार ताण्डव नत्य होता है या शान र करता है, बाद में दसरेके अपकारमें निमित्त बने अथवा
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, न बनें इसका कोई नियम नहीं है।
पौदगलिक है,-पुद्गल ( Matter) से निष्पन्न हुश्रा क्रोध पारमाका स्वाभाविक परिणाम नहीं, वह परके है, वह मेरे प्रारमगुणोंको हानी नहीं पहुँचा सकता। निमित्त से होने वाला विभाव है। उसके होने पर विवेक गाली देने वालेने यदि तुझे गाली दी है-अपशब्द कहा चला जाता है और अविवेक अपना प्रभाव जमाने लगता है, तो तुझे उसका उत्तर गालीमें नहीं देना चाहिये, है। इसीसे उसका विनाश होता है। क्रोध उत्पन्न होते ही किन्तु चुप हो जाना चाहिये। क्योंकिउस व्यक्तिकी शारीरिक प्राकृतिमें विवृति या जाती है, 'गाली आवत एक है जावत होत अनेक । मांखें लाल हो जाती हैं, शरीर कांपने लगता है, मुम्बकी जो गालीके फेरे नहीं तो रहे एकको एक ।। प्राकृति विगह जाती है, मुंहसे यद्वा तद्वा शब्द
कदाचित् यदि गालीका जबाब गाली में दिया जाता निकलने लगते हैं, जिस कार्यको पहने बुरा समझना
हैं तो झगड़ा और भी बढ़ जाता है-उससे शान्ति नहीं था क्रोध आने पर उसे ही वह अच्छ। समझने लगता
मिलती और न ऐसा करना बुद्धिमत्ता ही है। है। उस समय क्रोधी पुरुषकी दशा पिशाचसे अभिभूत व्यक्तिके समान होती है-जिस तरह पिशाच मनुष्यके
किसी कवि ने कहा है :शरीरमें प्रवेश करने पर वह व्यक्ति प्रापेसे बाहर होकर
ददतु ददतु गालों गालिमन्तो भवन्ता, प्रकार्यों को करता है कभी उचित किया भी कर देता है,
वयमाप तदभावात् गालिदानेऽसमर्थाः । पर वह उस अवस्थामें अपना थोड़ा सा भी हित साधन नहीं
जगद् विदित मेतद् दीयते विद्यमानं, कर सकता। इसी तरह क्रोधी मनुष्य भी अपना अहित नहि शशक विपारणं कोऽपि कस्मै ददाति ।। साधन करता हुमा लोकमें निन्दाका पात्र होता है। क्रोधो- दूसरे यदि गाली देने वालेके पास अनेक गालियां त्पत्ति के अनेक निमित्त है, झूठ बोलना, चोरी करना, कटुक है, तो वह गालियां देगा ही, क्योंकि यह लोक में विदित