Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 388
________________ - - - किरण १९ ] मूलाचार की मौलिकता और उसके रचयिता [३३१ पल्यकी वृद्धि होती है। ऐमा मूलाचारमें आचार्य स्पष्ट. जो प्रश्न और उत्तर रूपसे दो गाथाएं पाई जाती है, तासे निरूपण करते हैं I भी श्वेता भाचारांगमें उपलब्ध नहीं हैं, जबकि वे दोनों यतिवृषभने यहां मूलाचारके जिस मतभेदका उल्लेख गाथाएं मूलाचारके समयसाराधिकारमें पाई जाती है किया है, वह वर्तमान मूलाचारके बारहवें पर्याप्त्यधिकारकी और इस प्रकार हैं:८०वीं गाथामें उक्त रूपसे ही इस प्रकार पाया जाता है:- कधं चरे कधं चिकघमासे क सये! पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं । कथं भुजेज मासिज कधं पार्वण बज्झदि ॥१२१ चत्तालं पणदालं परणाश्रो पएणपण्णाओ॥०॥ जद चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदं सये। अर्थात्-देवियोंकी भायु सौधर्म-ईशान कल्पमें पांच जदं भुजेज मासेज एवं पावं स बज्मद ॥१२२॥ पल्य, सनकुमार माहेन्द्रकल्पमें सत्ताह पक्ष्य, ब्रह्मा ब्रह्मोत्तर धवला टीकाके उपयुक्त उल्लेखसे तथा इन दोनों करूप में पच्चीस पक्ष्य, सान्तव-कापिष्ठ-कापमें पैंतीस पक्ष्य, गाथाओंकी उपलब्धिसे वर्तमान मूलाचार ही आचारांग रक-महाशुझमें चालीस पक्ष्य, शतार-सहनापकरूप में सूत्र है, यह बात भले प्रकार सिद्ध होती है। बैंतालीम पल्य, मानत-प्राणत कल्पमें पचास पश्य और अब देखना यह है कि स्वयं मनाचारकी स्थिति क्या भारण-अच्युत कल्पमे पचवन पल्य है। है और वह वर्तमान में जिस रूप में पाया जाता है उसका यतिवृषभाचार्यके हम उल्लेखसे मुलाचारकी केवल वह मौलिक रूप है या संगृहीत रूप! प्राचीनता ही नहीं, कितु प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है। मूलाचारकी रीका प्रारम्भ करते हुए मा.बसुनन्दीने यहाँ एक बात और भी जानने योग्य है और वह यह जो उत्थानिका दी है, उससे उक्त प्रश्न पर पर्याप्त प्रकाश कि मूलाचार-कारने देवियांकी मायुसे सम्बन्ध रखने वाले पड़ता है अतः उसे यहां उदघन किया जाता है। वह जहां केवल दो ही मतोंका उल्लेख किया है, वहां तिलोय उस्थानिका इस प्रकार है:पण्णत्तीकारने देवियोंकी भायु-सम्बन्धी चार मत-भेदोंका उल्लेख किया है। उनमें प्रथम मतभेद तो बारह स्वर्गोंकी श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलमान्यतः वालाका है। तीसरा मतभेद 'लोकायनी' (संभवतः गुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-पंचाचार पिंडशुद्धि-पडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षाऽनगारभावनालोकविभाग) ग्रन्थका है। दूसरा और चौथा मत मुलाचार समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्यधिकार-निबद्धमहार्थका है। इससे एक खास निष्कर्ष यह भी फालत होता है गभीरं, लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोकि मूलाचार-कारके सम्मुख जब दो ही मत-भेद थे. तब त्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायवचितपद्र्व्य नवपतिलोयपण्णती-कारके सम्मुख चार मतभेद थे-अर्थात् दार्थजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोऽनुष्ठानोत्पन्नानेकतिलोयपण्णत्तीके रचना-कालसं मूलाचारका रचना-कान इतना प्राचीन है कि मूलाचारकी रचना होनेके पश्चात् प्रकारद्धिसमन्वितगणधर देवरचितं मूलगुणोत्तरगुणस्वऔर तिलोयपयणात्तीकी रचना होनेके पूर्व तक अन्तराल- रूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचारांगवर्ती काल में अन्य भोर भी दो मत-भेद देवियों की भायुके माचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायू-शिष्यनिमित्तं विषय में उठ खड़े हुए थे और तिलोयपरणत्तीकारने उन द्वादशाधिकारैरुपमहतुकामः स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धसबका संग्रह करना आवश्यक समझा। कार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षम शुभपरिणामं विद्धच्छीवट्टइन दो उल्लेखोंसे भूनाचारको प्राचीनता और मौलि- केराचार्यः प्रथमनरं तावन्मूलगुणधिकारप्रतिपादनार्थ कता असंदिग्ध हो जाता है। मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते_यहां एक बात और भी ध्यान देने योग्य यह है कि अर्थात् जोश्रतस्कन्ध-बादशाहरूपश्रुतवृषका प्राधारधवला टीका जो गाथा पाचारांगके नामसे उद्धत है, भूत है, भट्ठारह हजार पद-परिमाया है, मूलगुण वह श्वेत. माचरांगमें नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त मादि पारह अधिकारोंमे मिबद्ध एवं महान अर्थ-गाम्भीर्यराजवातिकमादिमें पाचारांग स्वरूपका बटन करते हुए से युक्त है, बाण-सिर वर्ण, पद और वाक्योंसे सम

Loading...

Page Navigation
1 ... 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452