Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 403
________________ ३४६] ' अनेकान्त । किरण ११ इसी समय पुत्रीने भोजन-कक्षमें प्रवेश किया। भाइयोंकी ओर देखनेका उस साहस नहीं होता। पाप आते ही वह बोली-'कितना सुहावना लगता है आज जो सिर पर चढ़ कर बाल रहा है। वह फफक-फफक भवनमें । धन भले ही न हो, पुत्र रत्न तो हैं, मनकी कर रो पड़ी। माँका प्यार स्मरण पाने लगा। वे शान्तिके लिये । तुम कितनी भाग्यवान हो माँ ! लोरियाँ स्मरण आने जो उसे सुलाने के लिए मां बचपन पुत्रीके शब्द सुनते ही उसे एक धक्का सा लगा। में गाती रही थी। वे कौतुक याद आने लगे जो बचचेतना पुनः जागृत हुई। मन धीरे-धीरे विवेककी ओर पनमें स्नेह-सिक्त होकर भाइयों के साथ किए थे। लिः मुड़ने लगा। सोचने लगी-"ऋषियोंने कहा है पुत्र, पापिष्ठे ! जन्म दात्री माताका हनन करने चली है? कुपुत्र हो सकता है पर माता, कुमाता नहीं होती। और वाह री भगिनी ! फूलसे कोमल भाइयोंको मारने चली मैं ? वाह री माता ! नौ माह जिन्हें गभेमें धारण किया, है, एक पाषाण-खण्डके लिए? जिनका मुंह देख कर प्रसव पीड़ा भी भूल गई, जिनके बहिनकी करुण स्थिति देख कर दोनों भाई सोच मुखको देख-देखकर एक एक क्षण आत्मविस्मृति में रहे थे कितना स्नेह है दोनोंके प्रति बहिनका, सारासमाप्त हुआ; जिनकी किलकारियोंसे सारा भवन भरा का सारा स्नेह जैसे आंसुओंकी धारा बन कर वहा जा रहा, आज उसी अपने रक्तको कुचलने चलो है माता ? रहा है। बस, एक पत्थरके टुकड़े के लिए? धिक् पापिष्ठे! मित्रवती भोजन करनेके बाद बहुत समय तक अचेतनके लिये चेतनका व्याघात करने चली है ?" एकान्तमें रोती रही। पश्चातापकी ज्वालामें जलती हुई इतना सोचते हुए उसने अन्यमनस्क भावसे कहा- वह रात्रिके समय भाइयों के कक्ष में जा पहुंची। हृदय"पुत्री ! देखो, यह मूल्यवान रत्न है। सम्हाल कर की समस्त वेदनाको अन्तरमें छुपा कर वह मुस्कराती रखना।" __ हुई बोली-लो भैया ! एक रत्न है यह मूल्यवान । मित्रवतीने रत्नको हाथमें लिया पर माताकी अन्य- इसे अपने पास रखो । रत्न देखते ही दोनों सारा मनस्कता वह समझ न सकी। धनमें बड़ा नशा है। रहस्य समझ गये । बहिनक रत्न-दानका रहस्य सोच जब यह नशा चढ़ता है तो बेहोश हो जाता है प्राणी। कर उनमें संसारक प्रति एक विचित्र सी अरुचि होने विवेककी ऑखें बन्द हो जाती हैं। अदृश्यपूर्व था लगी। माता भी गृह-कार्यसे निवृत होकर श्र पहुँची। रत्न । सोचने लगी-कौन-किसका भाई ? कौन-किस- देश विदेशकी चर्चाओंक बाद उन्होंने मातासे कहा, की माँ ? सब स्वार्थके सगे हैं। गरीब बहिनको किमने 'मों ! दरिद्रता कोई बुरा वस्तु नहीं। दरिद्रतामें व्यक्ति प्यार दिया है ? भाई वैभवके नशेमें चूर रहते हैं और इतना दुःखी नहीं जितना वैभव पाने के बाद । दरिद्रता वहिन दर-दरकी ठोकरें खाती है। क्यों न मुलादू व्यक्तिके लिए वरदान है। वैभवकी अपेक्षा दरिद्रतामें सदाके लिए। धनवान युवतीके लिए कल्पनातीत वर शान्ति है, तृप्ति है।' भी तो मिल जाता है। आश्चर्यकी क्या बात है...? माँ ने बेटोंकी ओर प्रश्न-सूचक दृष्टिसे देखा। ___ भोजन तैयार हो चुका था मां बेटोंको लेकर मानों जानना चाहती है कि वैभवमें अशान्ति कैसी ? भोजन-भवनमें आई । शूरमित्र बाला-चन्द्र आज तो शूरमित्र बोला-माँ ! एक रत्न मिला था हम वहिन मित्रवती के साथ भोजन करेंगे। याद है जब दोनोंका, जिसे संसार सम्पदा मानता है। रत्न हाथ छोटी सी गुड़ियांकी तरह इसे लिए फिरते थे ? चिढ़ाते में आते ही मैंने एकाकी ऐश्वर्यके काल्पनिक सपने थे, रुलाते थे, मनाते थे इसे।" इत | कहते-कहते बना लिए । अनुजको मार कर वैभवकी एकाकी भोगनेउसने मित्रवतीको अपने थालके समीप ही खोंच लिया की विषैली महत्वाकांक्षा मनमें भड़कने लगी। भाग्यसे दोनों भाई स्वयं खात, बहिनको खिलाते, भवनमें मनमें स्नेहकी धारा वह निकली, अन्यथा भ्रातृ-हत्याका मानन्दकी लहर दौड़ गई। पाप जन्म-जन्ममें लिए भटकता फिरता। शूरचन्द्र पर, मित्रवती तो जेसे धरतीमें धंसी जा रही है। वोला-माँ ! ज्येष्ठ भ्राताने रत्न मुझे सौप दिया था

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