Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 424
________________ किरण १२] मूलाचारकी कुन्दकुन्दके अनेक प्रन्थों के साथ समता [३६३ जिस प्रकार कुन्दकुन्द अपने ग्रन्थों में मंगलाचरणके भट्ठाईस मूलगुणोंका विस्तारके साथ प्रवचनसार-निर्दिष्ट साथ ही अपने प्रतिपाच विषयके कहनेकी प्रतिज्ञा करते ब्रमसं वर्णन किया गया है जो कि मुनिधर्मका प्रतिपादक हुए दृष्टिगोचर होते हैं, ठीक यही क्रम मूलाचारके प्रत्येक माचार शास्त्र होनेके नाते उसके अनुरूप ही है। इन अधिकारमें दृष्टिगोचर होता है। यथा मन्याके संक्षेप-विस्तारका यह साम्य भी दर्शनीय है । यथाः(१) इहपरलोगहिदत्थे मलगणे कित्तइस्मामि । वदमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । (मुलाचार. १,१) खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभायणमेगभत्तं च ।।२०८।। मुक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पएणत्ता ॥२०६ (चारित्रपाहु ) (प्रवचनसार) (२) वोच्छं सामाचारं समासदो आणुपुब्वीए। पंच य महव्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्रिा। (मुलाचार. ४.) पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोचो ॥२॥ पज्जतीसंगहणी वोच्छामि जहागुपुव्वीए । अच्चेलकमण्हाणं खिदिसयणमदतघंसणं चेव । ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अठवीसा दु ॥२॥ (मूलाचार. १२, १) (मूलाचार, मूलगु०) दंसणमगं वोच्छामि जहाकम समासेण । प्रवचनमारके 'वसमिदिदियरोधो' इस सूत्रका मूला (दर्शनपाहुड.) चारमें भाष्यरूप दृष्टिगोचर होता है। शेष सात गुणों के (३) वाच्छामि समयसारं सुण संखेवं जहावुत्तं । नाम दोनोंमें ज्यों के त्यों ही है । अर्थात् ५ महावत, ५ (मूलाचार, १०,१) समिति, इन्द्रियनिरोध, ६ श्रावश्यक और केशलोंच, वोच्छामि समयपाइडमिणमो सुयकेवलीभणियं । २ श्राचेलक्य, ३ अस्नान, " भूमिशयन, ५ अदन्तधावन, ६ स्थितिभोजन, और . एक वार भोजन मुनियोंके (समयसार..) इन २८ मूलगुणोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। वोच्छामि समलिंगं पाहुडसत्थं (लिगपाहुड) (२) भावपाहुड में कान्दपी, किस्विषिकी, संमोही, वोच्छामि भावपाहुड० (भावपाहुद. १) दानवी और भाभियोगिकी इन पांच अशुभ भावनाओं के वोच्छामि रयणसारं रयणसार. १) त्यागनेका माधुको उपदेश दिया गया है और बतलाया गया है कि इनके कारण देव-दुर्गति प्राप्त होती है अर्थात् (४) पणमिय मिरसा वोच्छं ममासदो पिंडसुद्धी दु। किस्विषिक आदि देवों में उत्पन्न होना पड़ता है। भाव (मूलाचार. ६.१) पाहुबमें जहां यह उपदेश एक गाथा ( नं. १३) में दिया एसो पमिय सिरमा समयमियं सुणह वोच्छामि। गया. वहां इन्हीं पांचों अशुभ भावनाओं का विस्तृत उप. (पंचास्तिकाय.) देश मूलाचारके द्वितीय अधिकारमें • गाथाओंके द्वारा दिया गया है, जो कि उसके अनुरूप है। (देवां गाया जहां उपरि-उक्त अवतरणोंमे प्रतिपाद्य विषयके कहने __० ६२ से १८ तक) की प्रतिज्ञा मूलाचारके समान ही कुन्दकुन्दके अन्य प्रन्यों (३) प्रवचनसारके तृतीय अधिकारमें साधुके लिए जो में पाई जाती है, वहां क्रियापदोंका और 'समामदो, समा कर्तब्यमार्गका उपदश दिया है, उसके साथ जब मूलाचारसेण, संखेवं, माणुपुग्वीए, जहाणुपुवीए आदि पदोंकी के भनगार भावनाधिकारका मिलान करते हैं, तो ऐसा समता भी इन प्रन्यांके एक कर्तृत्वको प्रगर करती है। प्रतीत होता है कि प्रवचनसारके सूत्रोंका यहां पर भाष्यविषय-समता रूपसे व्याख्यान किया जा रहा है। आहार, विहार, (१) मा. कुन्दकुन्दने प्रवचनसारके तृतीय अधिकार- उपधि, वसति प्रादिके विषयमें दोनों ही प्रन्यों में एकसा में मुनियोंके २८ मुबगुणोंका संक्षेपस वर्णन किया है, वर्णन मिलता है। भेद दोनों में केवल संक्षेप और विस्तार क्योंकि साररूप ग्रन्थ है । परन्तु मूलाचारमें उन्हीं का है।

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