Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 443
________________ ३८२ अनेकान्त [किरण१२ कला सिखा देवें । व्यवस्था जैसी बन जाए समय बत- पर्याय भरमें बड़े ही अद्भुत कार्य किए हैं। जो जो लाएगा। प्रण किए उन्हें अपने ही समक्ष पूर्ण किए। इस ८० इसके खर्च के लिये--४००००) रुपया तो ४- वर्षकी वृद्धावस्था में सर्व दिशाओंकी यात्रा समाप्त कर विद्वानोंको अन्तमें देना । १०००) रुपया मासिक भेंट, सागरसे अन्तिम यात्रा ७०० मीलकी क्रमशः ५ मील २५०) भोजन व्यय व २५०) लेखक आदिके लिये। प्रति दिन चल कर पूर्ण की, और इस निर्वाण पुरीइस तरह कुल १५०० एक माहका। दस वर्षका को ऐश्वर्य अन्वित कर केवल्यके ध्येयसे अपनेको ईसरी २२००००) इतने में यह प्राचीन जैन साहित्यका उद्धार में ही अचल बनाया । आज महाराजके मुखारबिन्दसे कार्य हो सकता है। यदि सागर प्रान्त चाहता तो सह जो अमृत वर्षा हुई वह इस प्रकार हैजमें यह कार्य हो सकता था कोई कठिन बान न थी। शीरके वेगोंको रोकनेसे कोई लाभ नहीं । भूखकी परन्तु हम स्वयं इतने कायर रहे जो स्वयं अपने अभि- बाधा होगी। तब एक दिन नहीं सहोगे दो दिन नहीं प्रायको पूर्ण न कर सके । अव पश्चातापसे क्या लाभ, सहागे अन्त में खाना ही होगा। इसी तरह निद्रा है अब तो वृद्ध हो गए । चलनेमें असमर्थ बोलने में कब तक नहीं सोवोगे अन्त में सोना ही पड़ेगा। हाँ असमर्थ लिखने में असमर्थ । यह सब होकर भी आत्माके वेगांको रोका। क्रोधादिको छोड़ो। यदि क्रोध भावना वही है जो पूर्वमें थी। अब तो श्री पार्श्वदेवके न करोगे तो काम चल जाएगा। शान्ति क्षमा आदिसे निर्वाण क्षेत्र में पहुँच गये हैं। क्या होगा प्रभु जाने। जीवन व्यतीत होगा। इससे ही आनन्द होता है ! यह इस कार्यके योग्य क्षेत्र पार्श्व जन्म नगरी वाराणसी ही स्वानुभव प्रत्यक्ष है। स्वाध्याय करो लक्ष्य संवर निर्जराउपयुक्त है। यदि किसीके मनमें यह आवे तब इस का रखो । केवल ज्ञानवृद्धिका नहीं। ज्ञान तो स्वभाव कायको बनारस में ही प्रारम्भ करें। ही है। कम हो या ज्यादा आशा रहित करो । इसी मैंने अब क्षेत्रन्यास कर लिया। यदि क्षेत्रन्यास तरह सब काम ताव आने पर होते हैं। जैसे रोटी न किया होता तो अवश्य एक बार उस प्रांतमें जाता सेंकनेका ताव । कड़ाईका ताव विद्यार्थीको परीक्षाका और एक वर्षमें ही इस कार्यकी व्यवस्था पूर्ण करवा ताव । दुकानदारको विक्रीका ताव । आपका नरभवका लेता। ऐसे कई महानुभाव थे, पर अब वह बात दूर ताव आया । इसालिए तैयार हो जाओ कुछ न कुछ हो गई । अब तो पार्श्वप्रभुके चरणों में कालपूर्ण कर छोटी सी प्रतिज्ञा करो उसमें भंग होनेका भय न जन्मान्तरमें इस विकासको देखगा। यह मेरा भाव करो। भंग होन पर सावधानीसे प्रतिज्ञाको सम्भालो। था सो व्यक्त करके निःशल्य हुआ। एक बार नरभवको इसी अज्ञान रागादि निवारणमें अब मैंने १ मासमें एक बार पत्र देनेका नियम लगादा आदि। किया है। अतः कोई भाई पत्र व्यवहार न करे. जो . श्री वर्णी जीने यह भी मंकेत किया कि प्राचीन भाई वा बहिन जिन्हें धर्म-साधनकी इच्छा हो वे निः जनसाहित्यका संग्रह कार्य बनारसमें होगा। तदर्थ शल्य होकर यहाँ धर्म साधन करें। यहाँ समागम एक मकान होना चाहिये। जिसके लिये ४००००) ब्रह्मचारी श्री सुरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता वालोंका उत्तम तथा उसको सुशोभित करनेके लिए ४००००) केथों है। तथा समय समय पर श्रीमान प्यारेलालजी भगत की आवश्यकता होगी। इस तरह सब मिला कर जो कि विशिष्ट विद्वान तथा त्यागी हैं उनका भी समा- ३०००००) की जरूरत है। एक हजारके ३०० सदस्य गम रहता है। बन जाय तो सहजमें यह यह कार्य हो जाय । जिनईसरी आश्रम शुभचिन्तक वाणीकी सेवाके लिए अपने द्रव्यका सदुपयोग करनेका वैशाख बदी २ सं० २०११ गणेश वर्णी मुभवसर है। नोट:-परम धार्मिक बन्धुओंको सूचित करते हुए गुरुमक सन्देश प्रकाशकहर्ष हो रहा है कि महाराज श्रीवर्णीजीने अपनी शिखरचन्द्र जैन

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