Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 406
________________ किरण ११] धर्म और राष्ट्र निर्मा [३४६ ही है। कहा जाता है-कामकुम्भसे जो कुछ भी मांगा जाता और प्रसन्न रह सकती है जब कि उसमें धर्मके तत्व घुलेहै वह सब मिल जाता है। मुझे यहाँ नीचेका एक छोटा मा मिले हों। किस्सा याद आता है: व्यवस्था और धर्म दो हैं "एक बेवकूफको संयोगसे कामकुम्भ मिल गया। उसने सोचा-मकान, वस्त्र, सोना-चाँदी प्रादि अली बोलेनो धर्म क्या राष्ट्र और क्या समाज दोनोंका ही निर्माता है, इससे सब मिलती ही हैं पर देखें शराब जैसी बुरी चीज भी किन्तु जब उसको राज्य-व्यवस्था व समाज-व्यवस्था मिला मिलती है या नहीं। ज्योंही शराब मांगी त्योंही शराबसे दिया जाता है तब राज्य और समाज-दोनोंमें भयंकर गढ़छलाछल भरा प्याला उसके सामने आ गया। अब वह मोचने बड़का मुत्रपान होना है किन्तु इसके साथ-साथ धर्मके प्राण बगा-शराब तो ठीक, मगर इसमें नशा है या नहीं। पीकर भी संकट में पड़ जाते हैं। लोगोंकी मनोवृत्ति ही कुछ ऐसी है परीक्षा करूं। पीनेके बाद जब नशा चढ़ा और मस्ती आई कि यहां माधारणम साधारण कार्य भी धर्मकी मोहर लगा तब वह मोचने लगा-वेश्याओंके नयन-मनोहारी नृत्यक' दी जाती है। किमीको जल पिला दिया, या किसीको भोजन विना तो सब कुछ फीका ही है। विलम्ब क्या था। कामक करा दिया. बम इतनं मात्रसे आपने बहुत बड़ा धर्मोपार्जन म्भके प्रभावसं वह भी होने लगा। तब उसने मोत्रा-देखें, __ कर लिया ! यह क्या है ? इसमें धर्मकी दुहाई क्यों दी जाती में इस कामकुम्भको मिर पर रखकर नाच सकता है या नहीं। हैं? और धर्मको ऐस संकीर्ण धरातल पर क्यों घसीटा जाता आन्विर होना क्या था? कामकुम्भ धरनी पर गिरकर चकना है ? ये सब नो धर्मक धरातलसे बहुत नीचे एक साधारण चूर हो गया । वेश्यायोंक नृत्य बन्द हो गए और जब उस व्यवस्था और नागरिक कर्तव्यकी चीजें हैं। व्यवस्था और बेवकृफकी अग्वेिं खुली तो उस कामकुम्भक फूटे टुकडोंके साथ धर्मको मिलानेस जहाँ धर्मका अहित होता है वहाँ व्यवस्था साथ उसे अपना भाग्य भी फूटा हुआ मिला। भी लडम्बडा जानी है। धर्म, व्यवस्था और सामाजिक कर्त व्यसे बहुत ऊपर श्रात्म-निर्माणकी शकिका नाम है। भौतिक कहनेका तात्पर्य यह है कि लोग कामकुम्भकी तरह शकियोंकी अभिवृद्धिक साथ उसका काई सम्बन्ध नहा भार धर्मसे सब कुछ पाना चाहते हैं। मगर इसके साथ मजकी न उसका यह लक्ष्य ही है कि वे मिले। आज राजनातक बात यह है कि अगर अच्छा हो जाय तो धर्मको कोई बधाई काइ बधाई नेता उम आवाजको बुलन्द अवश्य करने लगे हैं कि धर्मको नहीं देता। उसके लिए तो अपना प्रकार प्रदर्शित किया जाता राजनीतिसे परे रग्या नाय पर हम तो शताब्दियोंसे यही है और अगर बुरा हो गया तो फिर धर्म पर दुत्कारोंकी बौछार आवाज बुलन्द करते आ रहे हैं। मेरा यह निश्चित अभिमत कर उसकी चाम उधेड ली जाती है। आप यह निश्चित है कि यदि धर्मको राजनीतिसं अलग नहीं रखा जाएगा तो समझे कि धर्म किमीका बुग कग्नं या बुग देनेके लिए है ही जिम प्रकार एक ममय 'इस्लाम स्वतरे का नार बुलन्द हुश्रा नहीं । वह तो प्रत्येक व्यक्रिका सुधार करनेके लिए है और था उसी प्रकार 'कहीं और कोई धर्म खतरेमें ऐसा नारा न उपका इसीलिए उपयोग होना चाहिए । गूज उठे । में समझता हैं यदि धार्मिक लोग सजग व संचन रहें तो कोई कारण नहीं कि भविष्य में यह त्रुटी दुहरायी राष्ट्र और धर्म जाय। अब यह पांचना है कि धमका राष्ट्र-निर्माणसे क्या निरपेक्ष राज्य सम्बन्ध है। वास्तवमें राष्ट्रक अात्मनिर्माणका जहाँ सवाल है वहाँ धर्मका राष्ट्रस गहरा सम्बंध है। मेरी दृष्टिमें राष्ट्रकी प्रामा भारतीय संविधानमें धर्मको जो धर्म-निरक्षेप राज्य बताया मानव समाजके अतिरिक दसर्ग सम्भव नहीं। मानव-समाज गया है उसको लेकर भी आज अनेक भ्रान्तियाँ और उलझने व्यकियोंका समूह है और व्यक्रि-निर्माण धर्मका अमर व फैली हुई हैं। कोई इसका अर्थ धर्महीन राज्य करता है तो अमिट नाग है ही। इस दृष्टिसे राष्ट्र-निर्माण धर्मसे मीधा कोई 'नास्तिक राज्य'। कोई आध्यात्मिक राज्य करता है तो सम्बन्ध है । धर्म रहित गष्ट्र राष्ट्र नहीं अपितु प्राण शून्य कोई पापी राज्य । देहली प्रवासमें जब मेरा संविधान विशेषकलेवरक समान है। राष्ट्रको प्रान्मा नब ही म्वस्थ मजबूत जोसे सम्पर्क हश्रा तो मैंने उनसे इस विषयमें चर्चा की।

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