Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ २०६] भनेकान्त [किरण राष्ट-कूट युगका जैन साहित्य विल्यात 'प्रमेयकमसमातंवर टीका लिखी थी। इन्होंने जैसा कि पहले पा चुका है अमोघवर्ष प्रथम कृष्ण मातडके अतिरिक्त 'न्यायकुमुदचन्द्रमी लिखा था। जैन द्वितीय तथा इन्द्र तृतीय वा तो जैन धर्मानुयायी थे तर्कशास्त्रके दूसरे प्राचार्य जो कि इसी युगमें हुए येथे अथवा जैनधर्मकै प्रश्य दाता थे। यही अवस्था उसके मालवादी थे, जिन्होंने नवसारीमें दिगम्बर जैन मठकी अधिकतर सामन्तोंकी भी बी। अतएव यदि इस युगमें स्थापना की थी जिसका अब कोई पता नहीं ! कई जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुमा तो यह विशेष स्वर्णवर्षक सूत पत्रमं इनके शिष्य शव्यको २१ई. पाश्चर्यजी पास नहीं है। वीं शतीके मध्य में हरिभद्रसूरि में दच्दानका उल्लेख है इन्होंने धर्मोत्तराचार्यकीर म्यायहुए है तथापि इनका प्रति अज्ञात होनेसे इनकी कृतियोंका विन्दुटीकापर टिप्पण विखे थे जो कि धर्मोत्तर टिप्पण यहां विचार नहीं करेंगे। स्वामी समन्तभद्र यद्यपि राष्ट्र नामसे ज्यात है। बौद्धग्रन्थके उपर जैनाचार्य द्वारा टीका कूट कालकै बहुत पहले हुए हैं तथापि स्थाबादकी सर्वो. लिखा जाना राष्ट्रकूटकालके धार्मिक समन्वय तथा सहि ब्णुताकी भावनाका सर्वथा उचित फल था। तम व्याख्या तथा तत्कालीन समस्त दर्शनोंकी स्पष्ट तथा अमोघवर्षकी राजसभातो अनेक विद्वानरूपी मालासे सयुक्तिक समीक्षा करनेके कारण उनकी प्राप्त मीमांसा सुशोभित थी.यही कारण है कि आगामी अनेक शखियों में इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि इस राज्यकालमें ८वीं वह महान-साहित्यिक प्रश्रयदाताके रूपमें ख्यात था। शती के प्रारम्भसे लेकर आगे इस पर अनेक टीकार्य उसके धर्मगुरु जिनसेनाचाय हरिवरापुराणके र यता थे, दक्षिण में खिंखी गयी थी। वह अन्य ७८६ ई. में समाप्त हुआ था। अपनी कृतिकी राष्ट्रकूट युगके प्रारम्भमें प्रककक महने इस पर प्रशस्तिमें उस वर्ष में विद्यमान राजाओंके नामाका उल्लेख अपनी अष्टशती टीका लिखी थी । श्रवणबेलगोलाके करके उमके प्राचीन भारतीय इतिहासके शोधक विद्वानों शिखालेखमें भकर्मकदेव राजा साहसतासे अपनी पर बड़ा उपकार किया है वह अपनी कृति प्रादि पुराणको महत्ता करते हुए चित्रित किये गये हैं। ऐसा अनुमान अनुमान समाप्त करने तक जीवित नहीं रह सके थे। जिसे उनके किया जाता है कि ये साहसतुझ दन्तिदुर्ग द्वितीय थे। इस शिष्य गुणचन्द्रने ८७ ई. में समाप्त किया था, जो शिलालेखमें पौदोंके विजेता रूपमें अकलकमहका वर्णन बनवासी १२...के शासक जांकादित्यके धर्मगुरु थे। है। ऐसी मी दन्तोकि किसकसक महाराष्ट्रकप सम्राट पादि पुराण जैनगन्य हैं जिसमें जैनतीर्थ र मादि शनाका कृष्ण प्रयमके पुत्र थे।। किन्तु इसे ऐतिहासिक सत्य पुरुषोंके जीवन चरित्र है। प्राचार्य जिनसनन अपने पाम्युिबनामेके लिये अधिक प्रमाद्योंकी पावश्यकता है। प्राप्त- दय काम्यमें शकारिक खाकाव्य मेघदतकी प्रत्येक श्लोककी me मीमांसाकी सर्वांगसुन्दरटीकाके रचयिता श्रीविद्यानन्द अंतिम पक्कि (चतुर्थ भरण) को तपस्वी तीर्थंकर पाश्यनाथ इसके योदेसमय बाद हुए थे। इनके उल्लेख श्रवणवेब- के जीवन वर्णनमें समाविष्ट करनेकी अद्भुत बौद्धिक कुश सीम m an गोलाके शिलालेखोंमें है। लताका परिचय दिया है। पाश्र्वाम्युदयके प्रत्येक पथकी न्याय-शास्त्र अन्तिम पंक्ति मेघदूत के उसी संख्याके रखोकसे ली गई इस युगमें जैन तर्कशास्त्रका जो विकास हुआ है वह है। ज्याकरण य शाकटायनकी आमाधति तथा भी साधारण न था१८वीं शतीके उत्तरार्धमे हुए पा- बीराचार्यका गणित ग्रन्थ 'गयितसार संग्रह' भी अमोघमाणिक्यनंदिने 'परीक्षामुखसूत्र'३ की रचना की थी। नौवीं वर्ष प्रथम राज्यकाबने समाप्त हुए थे। शतीके पूर्वाद्ध में इस पर प्राचार्य प्रभाचम्बने अपनी एपी०ए०भाग २ (भान्या.पृ.१६-१७ (१) पिटरसमकी रिपोट सं .. ..मा.रो.ए. (२)० एण्टी० १६०४ पृ.७, ११). एण्टी० भा० १२ पृ.२१६ सो. भा. १८ पृ. २१ () इसमें अपनेको खर्कप्रमोषवर्षका परमगुरु'कहता है (१) एपी० कर्मा. मा..सं. २० (८). एण्टी० १६१४ पृ. २०१ ()भारतीय न्यायका इतिहास पृ. ११, () बिस्टर नित्य गटी. भा. ..

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452