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संस्कृत साहित्य के विकासमें जैन विद्वानोंका सहयोग
(डा० मंगलदेव शास्त्री, एम. ए., पी. एच. डी. )
भारतीय विचारधाराकी समुन्नति और विकास में अन्य आचार्योंके समान जैन श्राचार्यों तथा ग्रन्थकारोंका जो बड़ा हाथ रहा है उससे आजकलकी विद्वानमंडली साधारणतया परिचित नहीं है। इस लेखका उद्देश्य यही है कि उक्त विचार धाराकी समृद्धि में जो जैन विद्वानोंने सहयोग दिया है उसका कुछ दिग्दर्शन कराया जाय जैन विद्वानोंने प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती हिन्दी, राजस्थानी, ते जगु, तामिल आदि भाषाओंके साहित्यकी तरह संस्कृत भाषा के साहित्य की समृद्धि में बड़ा भाग लिया है। सिद्धान्त, आगम, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, चम्पू, ज्योतिष भावुर्वेद, कोष, अलंकार, छन्द. गणित, राजनीति, सुभाfer आदि क्षेत्र में जैन लेखकोंकी मूल्यवान संस्कृत रचनाएँ उपलब्ध हैं। इस प्रकार खोज करने पर जैन संस्कृत साहित्य विशालरूपमें हमारे सामने उपस्थित होता है । उस विशाल साहित्यका पूर्णं परिचय कराना इस अल्पकाय लेखमें संभव नहीं है। यहाँ हम केवल उन जैन रचनाओंकी सूचना देना चाहते हैं जो महत्वपूर्ण हैं। जैन सैद्धान्तिक तथा घारं भिक ग्रन्थोंकी चर्चा हम जानबूझकर छोड़ रहे हैं। जैन न्याय
जैन के मौलिक तत्वोंको परल और सुबोधरीतिले प्रतिपादन करने वाले मुख्यतया दो ग्रन्थ हैं। प्रथम अभि नव धर्म भूषणयति-विरचित न्यायदीपिका दूसरा माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख, न्यायदीपिकामें नमाण और नयका बहुत ही स्पष्ट और व्यवस्थित विवेचन किया गया है। यह एक प्रकरणात्मक संक्षिप्त रचना है जो तीन प्रकाशमें समाप्त हुई है ।
गौतमके न्यायसूत्र' और दिग्नागके 'म्यायप्रवेश' की are माणिक्यनन्दिका 'परीक्षामुख' जैन न्यायका सर्व प्रथम सूत्र ग्रंथ है। यह छः परिच्छेदोंमें विभक्त है और समस्तसूत्र संख्या २०७ है। यह नवमी शतीकी रचना हूँ और इतनी महत्वपूर्ण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोंने इसपर अनेक विशालटीकाएँ लिखी हैं प्राचार्य प्रभाचन्द्र [७८०१०६५ ई०] ने इस पर' बारह हजार श्लोक परिमाण 'प्रमेयकमक्षमा' नामक विस्तृत टीका बिली है ।
१२वीं शती अघुनन्तवीर्थने इसी प्रन्थ पर एक 'प्रयरत्नमाला' नामक विस्तृत टीका लिखी है। इसकी रचनाशैली इतनी विशद और प्राब्जल है और इसमें बत किया गया प्रमेय इतने महत्वका है कि आचार्य हेमचन्ने अनेक स्थलोंपर अपनी 'प्रमाणमीमांसा' में इसका शब्दशः और अर्थश: धनुकरण किया है। लघु अनन्तवीर्यमे तो माणिक्यनन्दीके/परीक्षामुखको प्रकखडके वचनरूपी समुद्रके मन्थन से उद्भूत न्यायविद्यामृतः बतलाया है
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उपर्युक दो मौलिक ग्रन्थोंके अतिरिक्त अन्य प्रमुख म्य यथोंका परिचय देना भी यहाँ अप्रासंगिक म होगा। अनेकान्तवादको व्यवस्थित करने का सर्वप्रथम श्रम स्वामी समन्तभद्र, (द्वि० या तृ० शदी ई०) और सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) को प्राप्त है स्वामी समन्तभद्रकी
मीमांसा और युक्त्यनुशासन महत्व पूर्ण कृतियां हैं। प्राप्त मीमांसा में एकान्तवादियोंके मन्तब्योंकी गम्भ आलोचना करते हुए प्राप्तकी मीमांसा की गई है और युक्तियोंके साथ स्वाद्वाद सिद्धान्तकी व्याख्या की गई है। इसके ऊपर भट्टाकलंक (६२०-६८० ई०) का अष्टती विवरण उपलब्ध है तथा प्राचार्य विद्यानंद (हवीं श. ई०) का 'अष्टसहस्री' नामक विस्तृत भाष्य और वसुनन्दिकी (देवागम वृत्ति) नामक टीका प्राप्य है । युक्त्यनुशासन में जैन शासनकी निर्दोषता सयुक्तिक सिद्ध की गई है। इसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर द्वारा अपनी स्तुति प्रधान बसीसियोंमें और महत्वपूर्ण सम्मतितर्कभाष्य में बहुतही स्पष्ट रीतिसे तत्कालीन प्रचलित एकान्तवादका स्वाद्वाद सिद्धातके साथ किया गया समन्वय दिखलाई देता है।
महाकादेव जैन न्यायके प्रस्थापक माने जाते हैं और इनके पश्चाद्भावी समस्त जैनतार्किक इनके द्वारा व्यवस्थित न्याय मार्गका अनुसरण करते हुए ही दृष्टि चर होते हैं। इनकी अष्टशती, न्यायविनिश्वय सिद्धिविनिश्चय लघीय और प्रमाणसंग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाएँ हैं। इनकी समस्तरचनाएँ जटिल और दुर्योध
१. 'अकलङ्कवचोऽम्भोषेरुद्ध मेन धीमता ।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥' 'प्रमेयरत्नमाला' पु० २