Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 376
________________ किरण १० ] की थी। उनके और बौद्धनेयायकोंकि संसर्ग और संघर्ष कारण प्राचीन न्यायका कितना ही अंश परिवर्द्धित और परिवर्तित किया गया और नवीन न्यायके रचनेकी आवश्यकता हुई थी। शाकटायन आदि वैयाकरण, कुन्दकुन्द समन्तभ स्वामी, उमास्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, महादेव, आदि नैयायिक टीकाकृत कुलरवि मल्लिनाथ, कोषकार अमरति अभिधानकार पूज्यपाद, हेमचन्द्र तथा गणितज्ञ महावीराचार्य, चादि विद्वान् जैन धर्मावलम्बी थे। भारतीय ज्ञान भण्डार दिगम्बर मूल परम्परा है इन सबका बहुत ऋणी है। जैन धर्म और दर्शन अच्छी तरह परिचय तथा श्रालोचना न होनेक कारण अब भी जैनधर्मके विषय में लोगोंके तरह तरह के उटपटांग ख्याल बने हैं। कोई कहना था यह बौद्धधर्मका ही एक मेद है। कोई कहना था वैदिक (हिन्दू) धर्म में जो अनेक सम्प्रदाय हैं, इन्हींमेंसे यह भी एक है जिसे महावीर स्वामीने प्रवर्तित किया था। कोई कोई कहते थे कि जैन चार्य नहीं हैं, क्योंकि वे ना मूर्तियोंको पूजने हैं जैनधर्म भारतक मूलनिवासियोंक किसी एक धर्म सम्प्रदायका केवल एक रूपान्तर है । इस तरह नाना अनभिज्ञताओंक कारण नाना प्रकारकी कल्पनाओंसे प्रसून भ्रांतियां फैल रही थीं, उनकी निराधारता अब धीरे-धीरे प्रकट होती जाती है जैनधर्म बौद्धधमें से अति प्राचीन । यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाम्बा नहीं है महावीर स्वामी जनधर्म संस्थापक नहीं हैं, उन्होंने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया था । महावीर या वहमान स्वामी देवके ममकालीन थे। बुद्धदेवने बुद्धत्व प्राप्त करके धर्मप्रचार कार्यका व्रत लेकर जिस समय धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, उस समय महावीर स्वामी एक मति तथा मान्यधर्म शिक्षक थे। बौद्धोंक त्रिपिटक नामक ग्रन्थ में 'नातपुत्त' नामक जिम्म निर्मन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख है, वह 'नातपुन' ही महावीर स्वामी हैं उन्होंने ज्ञातृनामक क्षत्रियवंशमें जन्म ग्रहण किया था, इसलिए ज्ञानपुत्र (पाली भाषामें जा [ना] स पुत्र) ये कहलाने थे। जैन मतानुसार महावीरस्वामी चौबीस या तिम तीर्थंकर थे। उनके लगभग २०० वर्ष पहले तेईसवें १ दिगम्बर सम्प्रदायक ग्रन्थोंमें महावीर स्वामीकं वंशका उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय ही ही 'ज्ञातृ' के प्राकृत रूप 'णात' का ही रूपान्तर है । ३२३ तीर्थंकर श्रीपारवनाथस्वामी हो चुके थे। अब तक इस विषयमें सन्देह था कि पार्श्वनाथ स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति थे या नहीं। परन्तु डा० हर्मन जैकोबीने सिद्ध किया है कि पार्श्वनाथने ईसासे पूर्व भ्राठवीं शताब्दी में जैनधर्मका प्रचार किया था। पार्श्वनाथके पूर्ववर्ती अन्य बाईस तीर्थकरोंके सम्बन्धमें अब तक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला है। 'तीर्थक', निर्गन्थ, और नग्न नाम भी जैनांक लिये व्यवहृत होते हैं । यह तीसरा नाम जैनोंके प्रधान और प्राचीनतम दिगम्बर सम्प्रदायके कारण पड़ा है। मेगस्थनीज इन्हें नग्न दार्शनिक ( ( Gymnosphists) के नामसे उल्लेख करता है। प्रोम देशमें एक ईलियाटिक नामका सम्प्रदाय हुआ है। वह नित्य, परिवर्तन रहित एक त सत्तामात्र स्वीकार करके जगतके मारे परिवर्तनों, गतियों और क्रियाओंकी संभावनाको अस्वीकार करता है। इस मतका प्रतिद्वन्द्वी एक 'हिराक्लीटियन' सम्प्रदाय हुआ है वह विश्वस्की ( द्रव्य) की नित्यता सम्पूर्ण रूपसे अस्वीकार करता है। उसके मनसे जगत सर्वथा परिवर्तनशील है। जगतो निरबाध गतिसे वह रहा है, एक भरके लिए भी कोई वस्तु एक भाव स्थित होकर नहीं रह सकती। ईलियाटिक-सम्प्रदायक द्वारा प्रचारित उक्त नित्यबाद और हीराक्लीरियन सम्प्रदाय द्वारा प्रचारित परिवर्तनवाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेक रूपोंमें नाना समस्याओंके आवरण में प्रकट हुए हैं। इन दो मर्तीक सम न्वयकी अनेक बार चेप्टा भी हुई है; परन्तु वह सफल कभी नहीं हुई। वर्तमान समयके प्रसिद्ध फांसीमी दार्शनिक वर्गमान ( Bergson ) का दर्शन हिराक्लीटियनक मतका ही रूपान्तर है । भारतीय नित्य-अनित्यवाद वेदान्तदर्शनमें भी मासे वह दार्शनिक विवाद प्रकाशमान हो रहा है। वेदान्तमसे केवल नित्य-शुद्ध--- मन्य स्वभाव चैतन्य ही 'सत्' है, शेष जो कुछ है वह केवल नाम रूपका विकार 'माया प्रपंच'अन्' हे शङ्कराचार्यने सत् शब्दकी जो व्याख्या की है उसके अनुसार इम दिग्बलाई देने वाले जगत प्रपंचकी कोई भी वस्तु सत् नहीं हो पकती । भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालोंमें जिस वस्तुक 1

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