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हिन्दी जैन-साहित्यम तत्वज्ञान
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किया गया, जैसा कि दक्षिण भारतके इतिहासमें और कभी की शरण ली, जिन्होंने उनकार तथा पालन किया नहीं हुमा । सभाण्डके घृणाजनक भजनोंसे, जिनके प्रत्येक यद्यपि प्रब जैनियोंका राजनीतिक प्रभाव नहीं रहा, और दश पथमें जैनधर्मकी भर्सना थी. यह स्पष्ट हो जाता उन्हें सब पोरसे पल्लव पापा और चोल राज्यवाले तंग है कि बमनस्यकी मात्रा कितनी बढ़ी हुई थी।
करते थे, तथापि विधामें उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई। प्रतएव कुन-पाययका समय ऐतिहासिक रष्टिने चिन्तार्माण' नामक प्रसिद्ध महाकायकी रचना तिच्या ध्यान रखने योग्य है, क्योंकि उसी समयस दक्षिण भारतमें कोबर द्वारा नवीं शती में हुई थी। प्रसिद्ध तामिल-बैया जैनधर्मकी अवनति प्रारम्भ होती है। मि० टेलरके अनु- करण पविनान्दजैनने अपने नन्नन' की रचना ११२५ । सार कुन-पारख्यका समय १३२० ईसवीके लगभग है, ई. में की। इन प्रन्यांके अध्ययनसे पता लगता है कि परन्तु डा. काल्डवेल १२९२ ईसवी बताते हैं। परन्तु जैनी लोग विशेषतः मैलापुर, निदुम्बई ( विपंगुदी शिवालेखांसे इस प्रश्नका निरय हो गया है। स्वर्गीय (तिरुवलुरके निकट एक ग्राम ) और टिबडीवनममें निवाश्री वेंकटयाने यह अनुसन्धान किया था कि सन् ६२४ ई. स करते थे में पल्लवराज नरसिंह वर्मा प्रथमने 'वातापी' का विनाश
अन्तिम प्राचार्य श्री माधवाचार्यके जीवनकालमें किया
मुसलमानाने दक्षिण पर विजय प्राप्त को, जिसका परिणाम शतीके मध्यम निश्चित किया जा सकता है। क्योंकि
यह हुआ कि दक्षिण में साहित्यिक, मानसिक और धार्मिक संभाण्ड एक दूसरे जैनाचार्य तिरुननकरमार' अथवा लोक
उन्नतिका बड़ा धक्का पहुंचा और मूतिविध्यसकोंके प्रत्याप्रसिद्ध अय्यारका समकालीन था परन्तु संभाण्ड 'अय्यर'
चारों में अन्य मतालम्बियोंके साय जानियोंको भी पर
मिना । उस समय जैनियोंकी दशाका वर्णन करते हुये से कुछ छोटा था। और अय्यरने नरसिहवर्माके पुत्रका
श्रीयुत वार्थ सा.लिखते हैं कि 'मुसलमान साम्राज्य तक जैनीस शैव बनाया था। स्वय अय्यर पहले जैनधर्मकी शरणमें पाया था और उसने अपने जीवनका पूर्वभाग
जनमतका कुछ का प्रचार रहा । किन्तु मुसजिम साम्राज्य
__का प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दू-धर्मका प्रचार रुक गया, प्रसिद्ध जनविद्याके तिरुपदिरियुनियारके विहारांमें ज्य
और यद्यपि उसके कारण समस्त राष्ट्रको शर्मिक, राजतीत किया था इस प्रकार प्रसिद्ध बाह्मण प्राचार्य संमाएर और अय्यारके प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय पश्चात् -
मैतिक और सामाजिक अवस्था अम्तम्यस्त हो गयी।
तथापि माधारण अल्प संस्थानों. समाजों और मतोंकी अपने स्वामी तिनकायको प्रसन्न करनेके हेतु शैवमतकी दीपा ले ली थी पाण्ड्य और पल्लव राज्योंमें जैनधर्मकी
दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी उम्नति और अवनतिक उमतिको बड़ा धक्का पहुंचा। इस धार्मिक संग्राममें शेवा
इस साधारण वर्णनका यह उहेश र दक्षिण भारतमें को वैष्णव अलवारांस विशेषकर 'तिकमजिसप्पिरन'-और
सांप्परन'-और प्रसिद्ध जैनधर्मके इतिहासका वर्णन नहीं है। ऐसे हति
न तिरूमंगई' अलवारमं बहुत सहायता मिली जिनके
जिनक हाल लिखनेके लिए यथेष्ट सामग्रीका अभाव है। उत्तरकी भजनी और गीतों में जैनमत पर घोर कटाक्ष है। इस प्रतिनिया भारत के भी साहित्य में राजनैतिक तिहासका प्रबार तामिल देशों में नम्मलवारके समय (१०वीं शती
बहुत कम उल्लेख है। ई.) जैनधर्मका मास्तित्व सङ्कटमय रहा।
हमे जो कुछ ज्ञान उस समयके जैन इतिहासका है प्राचीन काल
वह अधिकतर पुरातत्ववेत्तामों और यात्रियाके लेखोंसे नम्मलवारके अनन्तर हिन्दू-धर्मके उन्नायक प्रसिद्ध प्राप्त हना है, जो प्रायः यूरोपियन हैं। इसके अतिरिक्त प्राचार्योंका समय है। सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए जिन- वैदिक ग्रन्थोंसे भी जैन इतिहासका कुछ पता लगता है. का उत्तरकी ओर ध्यान गया। इससे यह प्रगट है कि परन्तु वे जैनियोंका दर्शन सम्भवतः पक्षपानके माथ दक्षिण-भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति हो हो चुकी थी। तथा जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध इस लेखका यह देश नहीं है कि जैन समाजके माजैनस्थानों प्रवणबेलगोल (मैसूर ) टिरिडवनम्- चार विचारों और प्रयामोंका वर्णन किया जाय और न (दक्षिण अरकाट) माविमें जा बसे । कुछने गंग राजामों- एक लेख में जैन गृह-निगण-कसा, मादिका ही वर्णन हो