Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 324
________________ किरण] आठ शङ्कामोंका समाधान २७५] होना चाहिये चूंकि जयसेनाचार्यने पाठको सुरक्षित नहीं हो सकता है कि पूर्व गाथामें अब्ध अर्थरखा है। में प्रयुक्त हुचा है-उसका अर्थ मोह और राग द्वेष रहित (८) समाधान-जो अर्थ अनन्य विशेषणका है वह अवस्था विशेष है उससे मुक्त मामाको बतलाना इष्ट विशेष है और सामान्य अर्थका सूचक पद अविशेष है। था। किन्तु प्रकृतमें ऐसा अर्थ पाच वर्यको इष्ट नहीं वैसा अर्थ न तो नियत पदमें हैं जो कि क्षोभ रहित अर्थ था इसी लिए वह नियत पद अविशेषके स्थान पर रक्खा में प्रयुक्त हुआ है और न असंयुक्त-शब्दमें चूकि ।४ गया, नकि उपनय रूप वह बनाया गया। १७वीं गाथावी गाथामें उसका प्रयोग अमिश्रित अर्थमें हुआ है- में शुद्धनयके विषयभूत प्रास्माको पाँच विशेषणोंसे युक्त इसी लिए अविशेष शब्दको प्रयोग हुआ है । स्पष्ट अर्थमें बतलाया है-उसका अर्थ यह है कि शुद्ध नय कभी अबद्ध प्राचार्यवर्यको यह बताना था कि प्रारमाको अब तथा दखता है। कभी दसरे रूप नहीं है-अनन्य इस प्रकार विशेष और सामान्य दोनों प्रकारसं देखना चाहिये चूकि देखता है, कभी मोह होभ रहित नियत देखता है, कभी मात्माको विना पूर्वोकरीस्या देखे वह जिनशामनका पूर्ण वह ज्ञान, दर्शन, सुख इत्यादिक भेद न करते हुए, ज्ञाता नहीं कहा जा सकता था जो कि प्रकृत अपदेशमूत्रके ज्ञाता रूपसे देखता कि ज्ञान भी प्रात्मा है सुख भी प्रात्मा मध्य में निर्दिष्ट है- समयसारके सम्पूर्ण अधिकारों का विवे इत्यादि और कभी वह शुखनयसे मात्माको दूसरे चन इमी मूल गाथाकी भित्ति पर है यदि उसके अंत: व्यादिक्के मिश्रणसे रहित प्रसंयुक्त देखता है-किन्तु परीक्षणसं काम लिया जावे | समयमार कलशका मंगला- वी गाथा में हो सारे जिनशासनको देखनेका कहा है। चरण भी इस गाथाकी ओर इशारा करके बतला रहा है कि प्रतः१५ वी गाथाका विवेचन अपने विशिष्ट विवेचनसे 'सर्वभावान्तरच्छिदे ऐसे समयसारके लिये ही हमारा अंतः अत्यन्त गम्भीर भोर विस्तृत हो गया है जो शुद्ध प्रशुद्ध करणसं नमस्कार है-न कि दुराग्रहके दलदलके प्रति । प्रादिकको जानने वाला ज्ञाता-सप्ततत्त्व राष्टा उसको असंयुक्त और नियतपद १५ वी गाथामें प्रावश्यक न थे केवल सामान्य ही नहीं विशेष भी जाननेको कहा है दोनोंचूकि सारा जिनशासन जी साततत्त्वको बतलाने वाला है वह समान्य विशेष प्रात्मक है अतः प्रकृनमें अविशेष को प्रधान रूपसे जानने वाला ज्ञान प्रमाण है प्रकृत में वरी पद रखा गया है । यहाँ उपलक्षण वाले झमेजेसे क्या यहाँ इष्ट है जो भामरूप है। आगे इस पर और भी जब कि वह नियत पद प्रकृत 'विशेष' अर्थका घातक अधिक विस्तारसे मन्य लेखों में विचार किया गया है। 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लन्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातच्च, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइले थोड़ी ही रह गई हैं। अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। मैनेजर-'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली।

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