Book Title: Anekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 289
________________ २४४ ] अनेकान्त [किरण दर्शनीय बनी हुई है। इस मूर्तिको प्रतिष्ठित हुए एक भारतने इस नश्वर राज्य के लिये कैमा बज्जाजनक कार्य हजार वर्षके करीबका समय व्यतीत हो गया है फिरभी किया, धिक्कार हो इस राज्य सम्पदाको, जो फलकालमें नवीन मरीम्बी मालूम पड़ती है। इससे साफ ध्वनित दुखदाई भौर पणभंगुर है। यह साम्राज्य व्यभिचारिणी होता है कि उम मूर्तिक सौन्दर्यका अक्षय भंडार है। वह स्त्रीके समान है परन्तु विषयोंमें निमग्न प्राणी उनमें दर्शकको केवल अपनी भोर माकृष्ट ही नहीं करती, किन्तु पण भंगुरता और नीरसताका अनुभव नहीं करता भोगी उसे उसके वास्तविक स्वरूपकी भोर भी अभिव्यंजिन नर हित-अहितके ववेकसे शून्य होना है। परन्तु खेद है करती हैं। पार्श्ववर्ती लतावेज जो मुर्तिके कंधों तक पहुँच कि भरत उन सबको निस्य मान रहा है यह दुःखकी गई है और पैरोंके समीप उत्कीर्य किए हुए कुक्कुट सोंकी बात है, इस तरह भाईके उस लज्जाजनक कार्यका बामिये, पाहुबलीके निर्मम एवं निस्पृह साधु जीवनकी उल्लेख करते हुए बोले कि हे भाई! तूने मोहित होकर बाद दिलाती हैं, उन्होंने अपने साधु जीवन में भूख, प्याम, प्रकरणीय साहसका कार्य किया है। अत: यह राज्यसर्दी, गर्मी, डांस-मछरी, ठंड, वर्षा प्रादिकी बाधाओं सम्पदा तुम्हे ही प्रिय रहे, हे आयुष्मन् ! अब यह परिषहों-उपसर्गोंको जीतकर समता और समाधिकी एकता राज्य विभूति मेरे योग्य नहीं । इतना कहकरतथा दृढ़ताकी पराकाष्ठाको नो प्रकट किया है ही। साथही, बाहुबलीने अपने पुत्र महाबलीको राज्य देकर गुरु प्रारमध्यानकी उस निश्चल एवं निष्कंप एवं प्रबोल एकाग्र चरणोंकी स्वयं पाराधना करते हुए दीक्षा धारण की। चित्तवृत्तिको, जो मोहशवको पणमें विनष्ट करनेको क्षमता ममस्त परिग्रहम मुक्त होकर मुनि बाहुबलीने एक वर्षका को प्रकट करता है और जिससे बाहुबखीने चल्य पदको प्रतिमायोग धारण किया-एक ही स्थानपर एक ही मामनप्राप्त किया था। __ में खड़े रहनेका कठोर नियम लिया-बाहुबलीने इस मूर्तिके विमल दर्शनमे बाहुबलीके जीवनकी महनताका दुर्धर तपश्चरणका अनुष्ठान करते हुए विविध कष्टी, म्पस्ट भाभाम होता है और हृदय में उनके जीवन-परिचयकी उपसर्ग परिषही, शीत-उच्य और वर्षा प्रादिकी बाधामों झांकीका वह दृश्य भी हृदय में हिलोरें लेने लगता है, जो की परवाह न करते हुये मौनपूर्वक म्वरूप चिन्तन में अपनेघटनाचक्र दीक्षा से पूर्व उनके जीवनकालमें घटित को जगाया। उनकी भुजामांसे बताएं लिपट गई और हुमा था और जो दीक्षा लेने कारण दुमा। उनके चरणोंके समीप सोने वामियों बनानी । बाहुबलीबाहुबलीने जब राजाभोके समक्ष भरतजीको दृष्टि, का मुनिजीवन कितना निस्पृह, कितना मिश्चल एवं पूर्व जल और मल्लयुद्ध मे जीत लिया, तो भी ये बड़े हैं इसीसे था, तथा उनकी मात्म साधना और रलत्रयरूप निधि उन्हें प्रथ्वीपर नहीं पटका किन्नु भुजामासे ऊंच उठाकर कषाय शत्रनामे कैसे अव बनी रही, यह कल्पनाकी कन्धे पर रख लिया, उस समय बाहुबलीके पक्ष वाले वस्तु नहीं, तपश्चरणसे उन्हें अनेक ऋद्धियां प्राप्त हुई। राजाभाने बड़ा शोर मचाया, इतने में भारतकी पराजय उनकी अहिंसाप्रतिष्ठासं जाति विरोधो जीवोंका वैर शांत महसा कांधमें परिणत हांगई उनका सारा शरीर क्रोधको हो गया था। इस तरह बाहुबलीको तपश्चरण करते एक वर्ष समाप्त होने पर भरतश्वरने उनके चरणों की पूजा की, ज्वानानास मुलमने लगा। उन्होंने क्रोधसं अंध बनकर और बाहुबलीने केवलज्ञान प्राप्त किया, पश्चात् अवबाहुबलीपर चक्र चलाया; परन्तु देवापुनीत शम्त्र वशका शिर अघातिया कर्म नष्ट कर अपने पितासे पूर्वही शिवघात नहीं करते। अतः बाहुबली बच गए और चक्ररत्न निस्तेज होकर उनके पास जा ठहरा। उस समय बड़े बड़े धाम प्राप्त किया। राजाने चक्रवर्तीस कहा कि बम यह माहम रहने दो, मूनिके दर्शनसे उनकी जोवबगाथाका स्मरण हुए हमसे चक्रवर्तीको और भी अधिक मन्ताप हुश्रा। बाहुबली- विना नहीं रहता। मूर्तिकी गम्भीर प्रकृति, ध्यानस्थ धीरेसे भाई को उतारा, राजाभाने बाहुबली कहाकि मुग्वमुद्रा, और मुखकी सौम्यता दर्शकके चिसको भाकृष्ट मापने खूब पराक्रम दिखलाया, उस समय कुछ क्षणके किये बिना नहीं रहती। गोम्मटेश्वरकी इस मूर्तिके चारों लिये बाहुबलीने भी अपनेको विजयी अनुभव किया, भोर या पिणीको मूर्तियाँ हैं, जिनमें एकके हाथमें किमत दसरे ही परश्य बदल गया और कहाकि देखो, चौरी और दूसरे में फल है। मृतिके वाईभोर पत्थरका

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