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अनेकान्त
किरण ५
परमार्थ मायके रूपमें ख्यातिको प्राप्त नहीं होणा-विशेष निलिमार्थ-सालास्कारी), अनादिमध्यान्त (आदि मध्य ख्याति अथवा प्रकीर्तनके योग्य वहीं होता है जो इन और अन्तसे शून्य), मार्य (सर्वके हितरूप), और शास्ता दोषोंसे रहित होता है। सम्भवतः इसी दृष्टिको लेकर (यथार्थ तत्वोपदेशक) इन नामों से उपलक्षित होता है। यहाँ 'प्रकीर्वते' पदका प्रयोग हुमा जान पड़ता है। प्रथात् ये नाम उक्त स्वरूप प्राप्तके बोधक हैं.' अन्यथा इसके स्थान पर 'प्रदोषमुक' पद ज्यादह ममा व्याख्या-प्राप्तदेवके गुणोंकी अपेक्षा बहुत नाम मालूम देवा।
है-अनेक सहस्रनामों द्वारा उनके हजारों नामोंका कीर्तन श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार अष्टावश दोषोके नाम किया जाता है। यहाँ ग्रंथकारमहोदयने अतिसक्षेपसे अपनी इस प्रकार है
रुचि तथा प्रावश्यकताके अनुसार पाठ नामोंका उल्लेख वीर्यान्सराय, २ भोगासराय, ३ उपभोगाम्तराय, किया है, जिनमें प्राप्तके उक्त तीनों बक्षवारमक गुणोंका दानान्तराप, लाभान्तराब निद्रा, . भय, ८ समावेश है-किसी नाममें गुणकी कोई टि प्रधान है, प्रज्ञान, गुप्ता १.हास्व. रति, २ भरति, ३ किमी में दूसरी और कोई सयुक्त रष्टिको खिये हुए हैं। राग, १४ द्वेष, १ अविरति, काम, " शोक, १८ जैसे 'परमेष्ठी' और 'कृती' ये संयुक्त इष्टिको निर हुए मिथ्यात्व।
नाम हैं, 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' ये नाम सर्वज्ञस्वकी इनमेंसे कोई भी दोष ऐसा नहीं है जिसका दिगम्बर दृष्टिको प्रधान किर हुए हैं। इसी तरह 'विराग' और समाज प्राप्तमें सद्भाव मानता हो। समान दोषों को छोड़- 'निमल' ये नाम उत्सन्नदोषत्वकी दृष्टिको और 'सार्व' नथा कर शेषका प्रभाव उसके दूसरे वर्गों में शामिल है जैसे अंत- शास्ता' ये नाम भागमेशित्वकी दृष्टिको मुख्य किए हुए राब कर्मक प्रभाव पाँची पतराय दोषोंका, ज्ञानावरण हैं। इस प्रकारको नाममाला देनेकी प्राचीन कालमे कुछ कर्मक प्रभावमें अज्ञान दोषका और दर्शनमोह तथा चारित्र पद्धति रही जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण प्रन्थकारमोहके अभाव में शेष मिथ्यात्व, शोक, काम अविरति रति, महोदयसे पूर्ववर्ती प्राचार्य कुन्दकुन्दके मोक्खपाहुद' में हास्य,और शुगुप्सा दोषोंका प्रभाव शामिल है। श्वेतांबर और दूसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के मान्य दोषोंमें पुषा तृषा, तथा रोगादिक कितने ही दिगंबर 'समाधितंत्र' में पाया जाता है। इन दोनों प्रन्यांमें परमा. मान्य दोषोंका समावेश नहीं होता-श्वेतांबर भाई भाप्तमें माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसको नाममालाका उल्लेख उन दोषोंका सदभाव मानते है और यह सब अन्तर उनके किया गया हैx । टीकाकार प्रभाचन्द्रने 'आप्तस्यप्रापा सिदान्त-मेदोंपर अवलम्बित है। सम्भव इस भेद- वाचिका नाममाला प्ररूपयन्नाह इस वायके द्वारा इसे दृष्टि तथा उत्सन्नदोष प्राप्तके विषयमें अपनी मान्यता प्राप्तको नाममाला तो लिखा है परन्तु साथ ही प्राप्तका को स्मथ करने के लिए ही इस कारिकाका अवतार हुमा एक विशेषण 'उक्तदोपैर्विवर्जितस्य' भी दिया है, जिसका हो। इस कारिकाके सम्बन्ध में विशेषविचार के लिय ग्रन्थकी कारख पूर्वमें उत्सन्नदोषकी दृष्टिसे प्राप्तके लक्षणात्मक प्रस्तावनाको देखना चाहिए।
पद्यका होना कहा जासकता है; अन्यथा यह नाममाला एक (माप्त-नामावली)
मात्र उत्सम्नदोष प्राप्तकी दृसि.को खिए हुए नहीं कही परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। जा सकती, जैसा कि ऊपर रष्टिके कुछ स्पष्टीकरणसे जाना सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते !!७॥ जाता है ।
_ 'छक स्वरूपको लिये हुए जो प्राप्त है वह परमेष्ठी x उल्लेख क्रमशः इस प्रकार है:(परम पदमें स्थित ), परंज्योति (परमातिशय- "मरहिमो कलचत्तो पाणिदिनो केवलो विसुदप्पा। प्राप्त ज्ञाणधारी), विराग (रागादि भावकमरहित), परमेट्ठी परजियो सिवंकरो सासमो सिद्धो ॥६॥" विमल (ज्ञानावरणादि ब्यकर्मवर्जित), कृती (हेयोपादेय
(मोक्सपाहु) सम्व-विवेक-सम्पन्न अथवा कृतकृत्य), सर्वज्ञ (यथावत् '
निखः केवल एडो विविक्तः प्रभुम्यः । देखो, विवेकविलास और जैनतत्वादर्श मादि। परमेकी परास्मेति परमात्मेश्वरो जिनः। (समाधितंत्र)