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अनेकान्त
[किरण
- रचनाका नाम योगशास्त्र है। इसमें दो सन्धियाँ है। कविने अपनी तीन अन्य रचनाओंका उल्लेख किया है। प्रथम सन्धि ६१ कडवक और द्वितीय सन्धिमें ७२ का- अन्ध प्रशस्तिसे हमें निम्न बातोंकाशन होता हैवक है इस प्रकार यह काम्य १३६ करवकमें समाप्त होता (1) श्रतकीर्ति भ. देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य एवं त्रिभुहै। रचनाकी केवल एक ही प्रति बड़े मन्दिरमें मिली है। वन कीर्तिके शिष्य थे। इसके १७ पत्र हैं। प्रतिका अन्तिम पत्र जिस पर ग्रंथ (२)शतकीतिक योगशास्त्रकी रचना जेरहट नगग्में प्रशस्ति वाला भाग जीर्ण होकर फट गया है इससे सबसे
नेमिनाथ स्वामीके मन्दिरमें सं० १५...."मंगसिर सुदी बड़ी हानि तो यह हुई कि रचनाकाल वाजा अंश भी कहीं। फटकर गिर गया है।
के दिन समाप्त हुई थी।
शास्त्र भण्डारमें प्राप्त योगशास्त्रकी प्रतिलिपि सं. अन्यमें योगधर्मका वर्णन किया गया है मंगलाचरणके १५५२ माघ सुदो १ सोमवारकी लिखी हुई है। लेखक पश्चात् ही कविने योगकी प्रशंसा खिखा है। कि योग प्रशस्तिके माधार पर यह शंका उत्पन्न होती है कि जब ही भव्य जीवोंको भवोदधिसे पार करने के लिए एक मात्र हरिवंशपुराणकी रचना संवत् १९५२ माघ कृष्णा ५ एनं सहारा है।
परमेष्ठिप्रकाशमारकी संवत् १९५३ श्रावण सुदी के सम्वह धम्म-जोउ जगिसारउ, जो भन्वयण भवोवहितारउ दिन समाप्त की थी तो योगशास्त्रकी रचना इससे पूर्व कैसे प्राणायाम भादि क्रियाका वर्णन करनेके पश्चात् समाप्त हो सकती है, क्योंकि प्रशस्तिमें दोनों रचनामोंका कविने योगावस्थामें लोकका चिन्तन करनेके लिये कहा है नामोल्लेख मिलता है जिससे यह झ कता है कि दोनों
और अपनी इस रचनाके ५० से अधिक कडवकोंमे वीन रचनायें इस रचनासे पूर्व ही हो गयी थी। यह प्रश्न लोकोंके स्वरूपका वर्णन किया है।
अवश्य विचारणीय है। मेरी दृष्टि से तो यह सम्भव है कि दूसरी सन्धिमें धर्मका वर्णन किया गया है। इसमें श्रुतकीनिने योगशास्त्रको प्रारम्भ करनेसे पूर्व हरिवंश षोडशकारणभावना, दस धर्म, चौदह मार्गणा तथा १४ पुराण तथा परमेष्ठिप्रकाशसारकी रचना प्रारम्भ कर दी गुणस्थानोंका वर्णन है। ६०वें करवकसे आगे कविने ही और वह योगशास्त्रके समाप्त होनेके पश्चात समाप्त भगवान महावीरके पश्चात् होने वाले केवली श्रुतकवली हुई हो । योगशास्त्रम तो केवल इसी आधार पर दोनों भादिके नामोंका उल्लेख किया है इसके पश्चात् भगवाह रचनाओंका उल्लेख कर दिया गया हो; क्योंकि ये रचनायें स्वामीका दक्षिण विहार श्वेताम्बर सम्पदायकी उत्पत्ति योगशास्रके प्रारम्भ होने के पूर्व प्रारम्भ कर दी गई थीं।
आदि पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। कुन्दकुन्द- इस प्रकार अब तक प्राप्त ग्रंथ के प्राचार पर यह कहा जा भूतबनि पुष्पदंत, मिचन्द्र उमास्वामि,-वसुनन्दि, सकता है कि श्रुतिकीर्तिने अपने जीवनकाल में धर्मपरीक्षा, जिनसेन, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र आदि प्राचार्योंका नाम हरिवंशपुराण, परमेष्ठिप्रकाशसार तथा योगशास्त्र हुन उनकी रचनाओंके नामों सहित उल्लेखित किया है। यही चारों प्रन्योंकी रचना की थी। नहीं किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायक उत्पन्न होनेके पश्चात् दिगम्बर प्राचार्याने किस प्रकार दिन रात परिश्रम करके योगसारके साठसे प्रागेके वे सब कडवक, जो सिद्धान्त प्रन्योंकी रचना की तथा किस प्रकार विग बर
ऐतिहासिक बातोंसे सम्बन्धित हैं उन्हें शीघ्र प्रकट समाज चार संघोंमें विभाजित हुया आदिका भी करिने
होना चाहिए। उल्लेख किया है। इस प्रकार ६० से प्रागेके कडवक
सम्पादकऐतहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।।।
श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्रीमहावीरजीके अनुसन्धान योगशास्त्रकी अन्य प्रशस्ति भी महत्वपूर्ण है । इसमें विभागकी और से ।