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अनेकान्त
[किरण ४
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पूर्व ज्ञान प्राप्त करके पुगवाजा शरोरले एकदम अपनी जातिकी विशेषता बार बिना सिखखाए अपने मुटकारा पा मुक्ति (मोच)न पा जाय । एक बार आप अपने कर्म करने लगता है। यह बात केवल कार्माण परमविशुद्ध रूप प्राप्त कर लेने पर पारमा का सम्बन्ध शरीरको अवस्थिति-द्वारा ही सम्भव है। इस विषयकी या साथ पुनः जडके साथ नहीं हो सकता। प्रज्ञान विशद व्याख्या जैन शास्त्रोंमें मिलेगी। जीवधारियोंके मताके कारण है और जड़का संयोग मज्ञानके कारण है। अपने भाप अपना कर्म करनेकी विचित्रताको सममानेके शानकी वृद्धि पुद्गलके बन्धन या चापको टीला बनाती लिए औरोंने भी अपने सुझाव दिए है-पर वे जरा भी है। ज्ञानकी कमी या अज्ञानकी वृद्धि जस्ताको रद करती सन्तोषजनक नहीं। पास्मासे युक्त कार्माण शरीर-जैसा है या पुद्गलके संयोगको अधिक सुद्ध बनाती है। ज्ञान जैन शास्त्रोंमें प्रतिपादित है वैसा ही स्वीकार करनेसे प्रास्माका अपना गुण है। जब छारमा पूर्णपने अपने गुण इस समस्याका समाधान ठीक ठीक होता है। को विकसित कर लेता है तो उसका सम्बन्ध पुद्गलसे इस विषयमें मैं एक लेख अनेकान्तके गत अंकों अपने भाप ट जाता है। पर जब तक यह पूर्णता नहीं "कौंका रसायनिक सम्मिश्रण" शर्षकसे, बिख पुका होती भारमा तो किसी न किसी शरीरके साथ ही रह है। मेरे "जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य" तथा सकता है-तबतक बगैर शरीरके अकेला हो ही नहीं "शरीरका रूप और का" नामक दो खेखोंमें भी इन सकता । मन और बुदि-युक्त मानव शरीरके द्वारा ही विषयों पर बहुत कुछ प्रकाश डाला गया है-उन्हें पढ़ने से प्रास्माका पूर्ण ज्ञान विकसित हो सकता है, अन्यथा तो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और काफी जानकारी प्राप्त हो यह सम्भव ही नहीं है। इसीलिए मानव अम्मकी इतनी सकती है। बड़ी महत्ता मानी गई है। इस शरीरके भी कई भाग ह प्रास्माकी चेतना रहने ही कारण जीवनी शकिभी रहती जिनमें कार्माण शरीर और तेजस शरीर तो सर्वदा मारमा
शरार ता सबदा भात्मा है और जीवनी शकि द्वारा शरीरके आधारसं ही कर्म होने के साथ हते हैं और हाइमांसमय घरय औदारिक शरीर
र हैं और फलस्वरूप दुख सुख इत्यादि भी चेतना द्वारा ही मृत्युके बाद यहीं रह जाता है, जबकि कार्माण और तेजस ।
अनुभूत किये जाते हैं इसीलिए प्रात्माको कर्ता और मोक्का शरीर मृत्युके बाद भास्माके साथ साथ दूसरे शरीरोंमें
भी कहा गया है। शरीर का तो कर्मोंका आधार माना भारमाको ले जाते हैं। यह कर्माण शरीर ही किसी भी
है। अनुभूति या अनुभव करने वाला तो प्रात्मा है । मन जीवधारीके जन्म, जीवन और मरणका आधार या कारण
मस्तिष्क और हृदय इत्यादि भी शरीरके ही भाग है और है। दश प्राणों के द्वारा यह शरीरमें स्थिर रहता है। जब
पुद्गलकृत (Made of Matter) हैं तथा अनुभूतियोंइन प्राणोंका घात या च्य होता है तो कर्माण शरीर प्रारमा
को अधिक साफ और उनका विधिवत् ग्योरेवार विशेष के साथ निकल जाता है, जिसे मृत्यु कहा जाता है।
ज्ञान कराने में सहायक कारण है । ये मस्तिष्क वगरा भी बाहरी शरीरमें भी और कार्माण शरीरमें भी सर्वदा भात्मा या प्रास्माकी चेतनाकी मौजूदगीमें ही कार्यशील परिवर्तन हुभा करता है। यह परिवर्तन ही जीवनको चालू रहते हैं-अन्यथा नहीं । बीजाणु (Spermetazoon) रखता है या यों भी कह सकते हैं कि जीवन जब तक में पहले जीव (भारमा) का बागमन होता है फिर धोरे २ रहता है परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन होते रहना शरीर, मस्तिष्क, मन इत्यादिका निर्माण होता है । इससे ही जीवन है। जबतक बाहरी शरीर और कार्माण शरीरों यह निश्चित है कि जीवधारीकी चेतना या ज्ञानके मूल का परिवर्तन सह-समान एक दूसरेके अनुकूल और साथ कारण या स्रोत मस्तिष्क, मन इत्यादि नहीं है-ये केवल साथ होता है जीवन रहता है। जब दोनोंमें भेद होता है माधार या सहायक मात्र हैं। बहुतसे जीवोंको मन और तो बीमारी और मृत्यु हो जाती है। हमारे कर्मों और मस्तिस्क इत्यादि होते ही नहीं, फिर भी उनमें जीवन और भावनाओंके अनुसार ही हमारे कार्माण शरीरमें तबदी चेतना रहती है। जीवन और चेतना भास्माके ही बच्न लियाँ होती रहती है। कर्माय शरीर ही हमारे कर्मोको है और हो सकते हैं। कराने और भाम्मको निश्चित करने वाला है। हम पाते हैं मास्माका होना केवल तर्कद्वारा ही सिद्ध होता है, किस पड पसी, कीपा मकोका जन्म होगके बाद ही प्योंकि इसे हम देख नहीं सकते महात्रियों द्वारा अनुभव