Book Title: Amantran Arogya ko Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya Sangh View full book textPage 7
________________ प्रस्तुति शरीर ही रोगी नहीं होता, मन भी रोगी होता है, भावनाएं भी रुग्ण होती है। वास्तव में भावना का रोग मन को रुग्ण बनाता है और मन का रोग शरीर फो रुग्ण बनाता है । रोग का विशाल साम्राज्य है | आरोग्य रोग का निषेध नहीं, वह भावात्मक अवस्था है । दवा ली, बीमारी मेट गई, आरोग्य उपलब्ध हो गया । यह आरोग्य की वास्तविक समझ नहीं है । रोग आया और फिर आरोग्य समाप्त । फिर दवा लें तब आरोग्य मिले । इस अर्थ में आरोग्य दवा के हाथ की कठपुतली बन गया । वास्तविकता ऐसी नहीं है । आरोग्य है विधायक भाव । आरोग्य है मनोबल, सृजनात्मक चिन्तन, पवित्र स्मृति और पवित्र कल्पना । यह हमारी नैसर्गिक शक्ति है । इसके द्वारा हम सदा स्वस्थ बने रहते हैं । तात्पर्य की भाषा में आरोग्य है हमारी रोग-प्रतिरोधक शक्ति । वह जितनी प्रबल, आदमी उतना ही अरुज । नकारात्मक चिन्तन और भाव रोग-प्रतिरोधक शक्ति को क्षीण करते हैं । इन्द्रियों का असंयम रोग प्रतिरोधक शक्ति को दुर्बल बनाता है । औषधि उसे देनी है, जो रोग को निमंत्रण देता है । नकारात्मक दृष्टिकोण और असंयम की चिकित्सा का अर्थ है, आरोग्य को आमंत्रण | इस भाषा को उलटकर कहें-विधायक दृष्टिकोण और संयम का अर्थ है आरोग्य को आमंत्रण | रोग को निमंत्रण देना बहुत आसान है | बहुत कठिन काम है आरोग्य को आमंत्रण देना । प्रस्तुत पुस्तक में इस कठिन कार्य को सरल बनाने की प्रक्रिया है । उसका चिन्तन और मनन कर हृदय तक पहुंचा जा सकता है । मुनि दुलहराजजी प्रारम्भ से ही साहित्य-संपादन के कार्य में लगे हुए हैं। वे इस कार्य में दक्ष हैं । प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि धनंजयकुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है। आचार्य महाप्रज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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