Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 7
________________ अवयव हैं। दण्डी की काव्य की परिभाषा इस संदर्भ में द्रष्टव्य है- काव्य शोभाकरान्धर्मानलंकारान्प्रचक्षते (काव्यादर्श, २.१)। वामन और आनन्दवर्धन भी दण्डी के पीछे चलते दिखाई देते हैं। अलंकारदर्पण का रचयिता भी अलंकारवादी है जो मानता है कि अलंकार श्रव्य काव्य को सुन्दर बना देते हैं और कुकुवियों के भी काव्य को अलंकृत कर देते हैं सव्वाइं कव्वाई सव्वाइं जेण होति भव्वाइं । तमलंकार भणिमोऽलंकारं कविकव्वाणं ।। गा २ आचार्य मम्मट और विश्वनाथ रसवादी हैं। वे इसके साथ गणों का अनिवार्य सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उनकी दृष्टि में काव्य के साथ गुणों का सम्बन्ध नित्य है और अलंकारों का सम्बन्ध अनित्य है। पर अलंकारदर्पणकार प्रसादगुणयुक्त काव्य को भी अलंकारहीन होने पर निष्प्रभ मानते हैं (गाथा.३)। पण्डितराज जगन्नाथ ने अलंकार को काव्य की आत्मा मानकर उसे रमणीयता प्रयोजक धर्म माना है। अलंकारवादी और रसाभिव्यंजनावादी कवियों की भी दृष्टि में अलंकार शोभाकारक धर्म हैं पर रसवादियों के अनुसार उसका प्रधान लक्ष्य है शब्दार्थ का शोभावर्धन करते हुए रस का उपकार करना। अलंकारदर्पणकार “सौन्दर्यमलंकारः" के ही पोषक हैं जहाँ वे कहते हैं कि जिस प्रकार लोगों के समक्ष प्रदर्शित प्रसन्न और अत्यन्त सुन्दर भी कामिनी का मुख अलंकार रहित होने से निष्प्रभ लगता है उसी प्रकार प्रसाद गुण युक्त काव्य भी लोगों के समक्ष पढ़ा जाता हुआ उपमादि अलंकार रहित होने से फीका लगता है अच्चंत सुंदरं पि हु निरलंकार जणम्मि कीरतं । कामिणिमुहं व कव्वं होइ पसण्णं पि विच्छाअं ।। ३।। अलंकार विरोधी अचार्यों ने भी अलंकारों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है और उनके वैज्ञानिक वर्गीकरण एवं समकोटिक अलंकारों में अन्तर स्थापन करते हुए सीमानिर्धारण किया है। चित्रविधान एवं बिम्बविधान में तो अलंकारों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। रसवादी आचार्यों ने भी उनके महत्त्व को स्वीकारा ही है। परवर्ती काल में अलंकारों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी विचार किया जाने लगा। उनकी संख्या का भी विकास होता गया और आज तो यह संख्या १२५ को भी पार कर भरत ने 'शब्दाभ्यासस्त यमकम्' कहकर यमक को शब्दालंकार के नाम से अभिहित किया पर भामह ने स्पष्टत: उसे शब्दालंकार और अर्थालंकार के रूप में वर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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