Book Title: Ajitsen Shilwati Charitram
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Ajitsagarsuri Shastra Sangraha
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प्रथमः
प्रस्तावः।
श्री अजितसेन शीलवतीचरितम् ।
सुभूः॥१॥ विशददशनपनिंछादयच्चाधरोष्ठं, हरति जनमनोऽलंरक्तबिम्बायमानम् । करतलगतमेतच्छचक्रादिचिह्न-मतुलविभवमूलं दृश्यतेऽस्याऽर्भकस्य ॥२॥ चरणयुगलमेतच्छत्रवाजिध्वजाम्मु-रुहकलशरथानां चारुरेखाभिजुष्टम् । त्रिदशविटपिनियत्पन्नवाभानुसारि, सुखदतिलकशोभा भूषयत्यङ्गमस्य ॥३॥ ध्वनिरतिमधुरोऽस्ति प्रोन्नतोत्रियोऽस्य, नवजलदगभीरस्तेजसामाश्रयस्य । विविधविभवदायीन्याश्रयन्त्यङ्गमस्य, ललितगुणगणानां हेतवोलक्षणानि ॥४॥ एवं नाना लक्षण लक्षितं तंबालं विलोक्य सुमतिचन्द्रेण प्ररूपितैस्तस्य शुभैः शरीरावयवैः सन्तुष्टमानसो रत्नाकरो निजस्थानमगमत् । सुमति चन्द्रोऽपि प्रसन्नीभूय निजनिकेतनमियाय । अथ शुक्लपचे शीतरश्मिकलाकलापइव, कन्पद्रुमनवाकुरइव, सरसिस्थित सरोजमिवाजितसेनकुमारस्य शरीरावयवा दिने दिने वृद्धिं पुपुषुः। धात्रीमिलोन्यमानः स बालस्तदुदितवचनानुसारेणा व्यक्तमधुरां भाषां कोकिलबालवदवोचत् । एवं कियति समये व्यतीते क्रमेण सप्तहायनः स बभूव । तदा योग्यवयसंतमर्भकं विज्ञाय परमप्रमोदपूरितान्तःकरणाभ्यां मातापितृभ्यां महोत्सवपूर्वकं शुभ मुहूर्ने स्वकुलागतकलाचार्यस्यसनिधी वाङ्मयप्रवेशाय स मुक्तः । बुद्धिनिधानः स कलाचार्योयान्यान्प्रबन्धानध्यापयति तान्सर्वान्सकच्छवणमात्रेणेव प्राक्पठितानिवबुद्धिसाध्यानकरोत् । स्वन्पप्रयासेनाऽचिराद्यथाक्रम गणिताद्यकविज्ञानच्छन्द-प्रमाणकोशकाव्यव्याकरणजिनेन्द्रोक्त धर्मशास्त्रेषु पारावारीणो न्यायसायवेदान्तमीमांसापातञ्जल्लादिशास्त्रेषु लन्धनैपुण्योद्वासप्ततिपुरुषकलासु चतुःषष्टिस्त्रीकलासु च पारगामी स बभूव । ततः समनुज्ञातसकलकलासारं सकलविद्यानां पारश्चानं कुमारं विज्ञाय रत्नाकरः श्रेष्ठी कलाचार्यस्यानुमतिश्च विदित्वा स्वमित्रं सुमतिचन्द्रं समाहूय समग्रपरिजनसमेत समहोत्सवं सुविहितदिने कुमारानयनाय समादि
॥११॥
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