Book Title: Agam Sutra Satik 40 Aavashyak MoolSutra 1
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 670
________________ अध्ययनं -४- [नि. १३३३] २१५ 'सुगिम्हए'त्तियदिपुण चित्तसुद्धपक्खदसमीए अवरण्हे जोगं निक्खिवंतिदसमीओ परेणजाव पुत्रिमा एत्यंतरे तिन्त्रिदिना उवरुवरि अचित्तरउग्घाडावणं काउस्सणं करेति तेरसिमादीसुवा तिसु दिनेसु तो साभाविगे पडतेऽविसंवच्छरंसज्झायं करेति, अह उस्सगंन करेति तो साभाविएय पडतेसज्झायं न करेतित्ति गाथार्थः ।। उप्पाएत्तिगयं, इदानिं सादिव्वेत्ति दारं, तच्चनि.(१३३४) गंधव्वदिसाविजुक्कगजिए जूअजक्खआलिते । इक्किक्क पोरिसी गज्जियं तुदो पोरसी हणइ ।। वृ. गंधर्वे-नगरविउव्वणं, दिसादाहकरणं विजुभवणं उक्कापडणं गञ्जियकरणं, जूवगो वक्खमाणलक्खणो, जक्खादितं-जक्खुदित्तं आगासे भवइ । तत्थ गंधवनगरं जक्खुदित्तं च एए नियमा दिव्वकया, सेसा भयणिज्जा, जेण फुडं न नजंति तेन तेसिं परिहारो, एए पुन गंधव्वाइया सव्वे एकेकं पोरिसिं उवहणंति, गज्जियं तु दो पोरिसी उवहणइत्ति गाथार्थः ।। नि. (१३३५) दिसिदाह छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगासजुत्ता वा । संझाछेयावरणो उजूवओ सुक्कि दिन तिन्नि ।। वृ-अन्यतमदिगन्तरविभागेमहानगरप्रदीप्तमिवोद्योतः किन्तूपरिप्रकाशोऽधस्तादन्धकारः ईदृक् छिन्नमूलो दिग्दाहः, उक्कालखणं-सदेहवनंरेहं करेंती जापडइसा उक्का, रेहविरहिया वा उज्जोयं करेंती पडइसावि उक्का । जूवगो त्ति संझप्पहा चंदप्पहा यजेणं जुगवं भवंति तेन जूवगो,सा य संझप्पहा चंदप्पभावरिया निष्फिडतीन नजइसुझपखपडिवगादिसु दिणेसु, संझाछेयए अणजमाणे कालवेलं नमुणंति तओ तिन्नि दिने पाउसियं कालं न गेण्हंति-तिसु दिणेसु पाउसिवसुत्तपोरिसिं न करेंति ति गाथार्थः ।। नि. (१३३६) केसिंचिहुंतिऽमोहा उजूवओ ता य हुंति आइन्ना । जेसिंतुअणाइन्ना तेसिं किर पोरिसी तिन्नि ।। वृ-जगस्ससुभासुभकम्मनिमित्तुप्पाओअमोहो-आइच्चकिरणविकारजणिओ, आइञ्चमुदयत्थमआयंतो(वो) किण्हसामोवासगडुद्धिसंठिओदंडोअमोहत्तिस एव जुवगो, सेसंकंठं ।। किंचान्यत्नि.(१३३७) चंदिमसूरुवरागे निघाए गुंजिए अहोरतं । संझा चउ पाडिएया जं जहि सुगिम्हए नियमा ।। वृ-चंदसूरुवसगो गहणंभन्नइ-एयं वक्खमाणं,साभ्र निरभ्रे वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितसमो ध्वनिर्निर्घातः, तस्यैव वा विकारो गुजावद्गुञ्जितो महाध्वनिर्गुञ्जितं । सामन्न ओ एएसुचउसुवि अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, निग्धायगुंजिएसु विसेसो-बितियदिणेजाव सा वेलानो अहोरत्तछेएण छिज्जइ जहा अन्नेसु असज्झाएसु, ‘संझा चउति अनुदिए सूरिए मज्झण्हे अत्थमणए अड्डरते य, एयासुचउसुसज्झायं न करेंति पुव्वुत्तं, पाडिवए'त्ति चउण्हं महामहाणंचउसु पाडिवएसुसज्झायं न करेतित्ति, एवं अन्नपि जंति-महं जाणेजा जहिंति-गामनगरादिसु तंपि तत्थ वज्जेज्जा, सुगिम्हए पुन सव्वत्थ नियमा असज्झाओ भवति, एत्थ अनागाढजोगा निखिवंति नियमा आगाढा न निखिवंति, नपढंतित्ति गाथार्थः ।। केय ते पुन महामहाः?.उच्यन्ते नि. (१३३८) आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धव्वे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808