Book Title: Agam Sutra Satik 40 Aavashyak MoolSutra 1
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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२२०
आवश्यक मूलसूत्रम् - २- ४ /२९ रायपतरिया तो सुद्धा, अहरायपहे चेव बिंदू पडिओ तहावि सज्झाओ कप्पतित्तिकाउं, अह अन्नपहे अन्नत्थ वा पडियं तो जइ उदगवुड्ढवाहेण हियं तो सुद्धो, 'पुणो 'त्ति विशेषार्थप्रतिपादकः, पीलवणगेण वा दड्ढे सुज्झइत्ति गाथार्थः । । मूल गाथायां 'परवयणं साणमादीणि 'त्ति परोत्ति चोयगो तस्स वयणं जइ साणो पोग्गलं समुद्दिसित्ता जाव साहुवसहीसमीवे चिट्ठइ ताब असज्झाइयं, आदिसद्दाओ मंजारादी । आचार्य आह
भा. (२२१)
इस तहिं तुंड अहवा लिच्छारिएण संचिक्खे | इहरा न होइ चोयग ! वंतं वा परिणयं जम्हा ।।
वृ- साणो भोत्तुं मंसं लिच्छारिएण मुहेण वसहिआसन्त्रेण गच्छंतो तस्स जइ तोंड रुहिरेण लित्तं खोडादिसु फुसित तो असज्झाइयं, अहवा लेच्छारियतुंडो वसहिआसन्ने चिट्ठइ तहवि असज्झाइयं, 'इयरह 'त्ति आहारिएण चोयग ! असज्झाइयं न भवति, जम्हा तं आहारियं वतं अवंतं वा आहारपरिणामेण परिणयं, आहारपरिणयं च असज्झाइयं न भवइ, अन्नपरिणामओ, मुत्तपुरसादिवत्ति गाथार्थ: 1 | तेरिच्छसारीरयं गयं, इदानिं मानुससरीरं, तत्थ
नि. (१३५५ )
मानुस चउद्धा अट्ठि मुत्तूण सयमहोरतं । परिआवन्नविवन्ने सेसे तियसत्त अडेव ।।
वृ-तं मानुस्ससरीरं असज्झाइयं चउव्विहं चंमं मंसं रुहिरं अट्ठियं च, (तत्थ अट्ठियं) मोत्तुं सेसस्स तिविहस्स इमो परिहारो- खेत्तओ हत्थसयं, कालओ अहोरतं, जंपुण सरीराओ चैव वनादिसु आगच्छाइ परियावन्नं विवन्नं वा तं असज्झाइयं न होति, परियावन्नं जहा रुहिरं चेव पूयपरिणामेणं ठियं, विवन्नं खइरकक्कसमाणं रसिगाइयं, सेसं असज्झाइयं हवइ । अहवा सेसं अगारीउ संभवति तिन्नि दिना, वियाए बा जो सावो सो सत्त वा अट्ठ वा दिने असज्झाओ भवतित्ति । पुरुसपसूयाए सत्त, , जेण सुक्कुक्कडा तेन तरस सत्त, जं पुण इत्थीए अट्ठ एत्थ उच्यते ।।
नि. (१३५६ )
रतुकडा उ इत्थी अट्ठ दिना तेन सत्त सुक्कहिए ।
तिन्नि दिनान परेण अनोउगं तं महोरतं ।।
वृनिसेकाले तुकडयाए इत्थिं पसवइ, तेन तरस अट्ठ दिणा परिहरणिज्जा, सुक्काहियत्तणओ पुरुसं पसवइ तेन तरस सत्त दिना । जं पुण इत्थीए तिष्हं रिउदिनानं परओ भवइ तं सरोगजोणित्थीए अनोउयं तं महोरत्तं परओ भन्नइ, तस्सुस्सग्गं काउं सज्झायं करेंति । एस रुहिरे विहित्ति गाथार्थः जं पुव्युत्तं 'अट्ठि मोत्तूणं' ति तस्सेदाणी विही भन्नइनि. (१३५७)
दंते दिट्ठि विचिण सेसठ्ठी बारसेव वासाई ।
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झामिय वूढे सीआण पाणरुद्दे य मायहरे ।।
वृ- जइ दंतो पडिओ सो पयत्तओ गवेसियव्वो, जइ दिट्ठो तो हत्थसया उपरि विगिंचिज्जइ, अह न दिट्ठो तो उग्घाङकाउस्सग्गं काउं सज्झायं करेति । सेसट्ठिएसु जीवमुक्कदिनाऽऽरब्भ उ हत्थसतब्भंतरठिएसु बारसवरिसे असज्झाइयं, गाथापूर्वार्द्ध, पश्चार्द्धस्य तु भाष्यकार एव व्याख्यां कुर्वन्नाह -
भा. ( २२२ )
सीयाणे जं दिनं तं तं मुत्तूणऽनाहनिहयाणि ।
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