________________ हमारे अपने अभिमतानुसार जिन प्रागमों में मुख्यरूप से श्रमण के प्राचार-सम्बन्धी मूलगूण, महाव्रत, ममिति, गुप्ति प्रादि का निरूपण है और जो श्रमणजीवनचर्या में मूलरूप से सहायक बनते हैं, जिन प्रागमों का अध्ययन श्रमण के लिए सर्वप्रथम अपेक्षित है, उन्हें भूलसूत्र कहा गया है। हमारे इस कथन का समर्थन इस बात से होता है कि पहले आगमों का अध्ययन प्राचारांग से प्रारम्भ होता था / जब आचार्य शय्यम्भव ने दशवकालिकसूत्र का निर्माण किया तो सर्वप्रथम दशवकालिक का अध्ययन कराया जाने लगा और उसके बाद उत्तराध्ययनमुत्र पढ़ाया जाने लगा।" पहले प्राचारांग के 'शस्त्रपरिज्ञा' प्रथम अध्ययन से शैक्ष की उपस्थापना की जाती थी। पर जब दशकालिक की रचना हो गई तो उसके बाद उसके चतुर्थ अध्ययन से उपस्थापना की जाने लगी।१२ मूलसूत्रों की संख्या के सम्बन्ध में भी ऐकमत्य नहीं है। समयसुन्दरगणी ने 1. दशवकालिक, 2. अोघनियुक्ति, 3. पिण्ड नियुक्ति, 4 उत्तराध्ययन, ये चार मूलसूत्र माने हैं। भावप्रभसूरि ने 1. उत्तराध्ययन, 2. आवश्यक, 3. पिण्डनियुक्ति-प्रोपनियुक्ति तथा 4. दशवकालिक, ये चार मूलसूत्र माने हैं।'४ प्रोफेसर बेवर, प्रोफेसर बूलर ने 1. उत्तराध्ययन, 2. आवश्यक और 3. दशवकालिक, इन तीनों को मूलसूत्र कहा है। डॉ० सारपेन्टियर, डॉ० विन्टरनीज और डॉ० ग्यारीनो ने 1. उत्तराध्ययन, 2. आवश्यक, 3. दशवकालिक एवं 4. पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र की संज्ञा दी है। डॉ० सुबिग ने 1. उत्तराध्ययन, 2. दशवकालिक, 3. अावश्यक तथा 4. पिण्डनियुक्ति एवं 5. प्रोपनियुक्ति, इन पांचों को मूलसूत्र बताया है।" स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा उत्तराध्ययन, दशवकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वारसूत्र को मूलसूत्र मानती हैं। मूलसुत्रविभाग की कल्पना का प्राधार श्रत-पूरुष भी हो सकता है। सर्वप्रथम जिनदासगणी महत्तर ने श्रत-पुरुष की कल्पना की है। श्रत-पुरुष के शरीर में बारह अंग हैं, जैसे--प्रत्येक पुरुष के शरीर में दो पैर; दो जंघायें, दो उरु, दो गात्रार्ध (पेट और पीठ), दो भुजाएँ, ग्रीवा और सिर होते हैं, वैसे ही आगम-साहित्य के बारह अंग हैं। अंगबाह्य श्रत-पुरुष के उपांग-स्थानीय हैं। प्रस्तुत परिकल्पना अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो आगमिक वर्गों के आधार पर हुई है। इस वर्गीकरण में मूल और छेद को स्थान प्राप्त नहीं है। प्राचार्य हरिभद्र जिनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है और प्राचार्य मलयगिरि, जिनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है, 11. पायारस्स उ उरि, उत्तरज्झयणा उ आसि पुध्वं तु / दसवेयालिय उरि इयाणि किं तेन होवंती उ॥ --व्यवहारभाष्य उद्देशक 3, गाथा 176 (संशोधक मुनि माणक०, प्र. वकील केशवलाल प्रेमचंद, भावनगर) 12. पुव्वं सत्थपरिण्णा, अधीय पढियाइ होइ उवट्टवणा / इम्हिच्छज्जीवणया, कि सा उन होउ उवट्ठवणा // -व्यवहारभाष्य उद्देशक 3, गाथा 174 13. समाचारीशतक / 14. अथ उत्तराध्ययन-पावश्यक--पिण्डनियुक्ति तथा गोपनियुक्ति-दशकालिक-इति चत्वारि मुलसत्राणि / -जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लो. 30 की स्वोपज्ञवृत्ति (ले० भावप्रभसूरि, झवेरी जीवनचन्द साकरचन्द्र) 15. ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर पॉफ दी जन्य, पृष्ठ 44.45, लेखक एच० पार० कापड़िया . 16. इच्चेतस्स सुत्तरिसस्स जं सुत्तं अंगभागठितं तं अगपविट्ठ भण्णइ / -नन्दीसूत्र चूणि, पृष्ठ 47 [ 21 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org