Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Jivajivabhigame Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 517
________________ दुविलंबिय-देव दुयविलंब [ द्रुतविलम्बित ] रा० ६१,१०४, २८ १ बुयाह | द्वयह ] जी० ३३८६, ११८, ११६, १७६, १७८, १८०,१५२ दुरंत [ दुरन्त ] रा० ७७४ दुरभि [ दुरभि ] जी० ३१८४ दुरस ] दूरस] जी० ३६८० दुरहियास | दुरध्यास, दुरधिसह ] २० ७६५. जो० ३।११०,१११,११७ √ दुरुह [ आ + रुह ] - दुरुह इ. रा० ६८५--- दुरुहंति रा० ४८. दुरुहति. रा० ४७-दुरुहेति रा० ६८३ दुरुहिता [ आरुह्य ] रा० ४७ दुरुता [ आरुह्य ] रा० ६८३ दुरूढ ( आरूढ | ओ० ६३,६४, ० १३,४६ दुरूव [ दुरूप ] जी० ३६७८,६८४ √ दुरूह [ आ + रुह ] -- दुरूति जो० ७० दुहिता [ आरुह्य ] ओ० ७० दुहिताणं [ आरुह्य ] ओ० १०१ दुल्लभ [ दुर्लभ ] रा० ७५० से ७५३ दुल्लभबोहिय | दुर्लभबोधिक ] १० ६२ दुध [ द्वि ] जी० ३।२५१ दुवारवयण ( द्वावदन] रा० ७५५,७७२ दुवालस [ द्वादशन् | ओ० ३३. जी० ३।३३ बालसंग | द्वादशान् । ० २६ दुवालसहि [ द्वादशविध | रा० ५२७७७८. जी० १६६ वासपरियाय विपर्याय] ओ० २३ विष | द्विविध | जी० ३।१३६, १४०, १४१,१६३, ११२२, ६ १३७ दुहि [ विविध ] ओ० ३२,४०,७४. १० ७४१ से ७४५. जी० १ २, ३, ५ से ७, १०, ११, १३.१४, ५७,५८,६३,६५ से ६८,७०,७६,८०,८१,८४, ८,८६,६२,६४,१६,६७,१०० से १०४, १०६,१११,११,११६,११८ से २२,१२६, Jain Education International ६५५ १२६,१३३,१३५,१३६, १४३, २५, ७, १६ ३:७८,७६,८१,८२,६१, १३, १२७१५, १३२ से १३५,१३८, १३६.१४२ से १४६, २१२,२२६, ६७७ से १८१,१०२२,१०७१ से १०७४, १०८७,१०९१,१११०, ११२१ ४ २ ५२ से ४,३७ से ४०, ५३ से ५५; ६८, ६, ११, १५,१६,१८,२१,२२,२४,२८ से ३१,३६, ३८,३९,४२,४४,४६,५६,५८,६२,६३,६५, ६६,६८,७६,७९,८१,१२५,१३३,१५१, १७४ gror [दुवर्ण ] जी० ३५६७ हओ [ द्वितस्, द्वय ] रा० ६६,७०,१३१ से १३८, २४५, ७५५,७७२. जी० ३।३०१ से ३०३, ३०५ से ३०७,३१५,३५५,४०७,५७७ ओखा [ द्वितः खहा ] रा० ८४ दुहओचक्कवाल [ द्वितश्चक्रवाल ] रा० ८४ दुहतो द्वितस्, द्वय ] रा० १२३. जी० ३।३०४ दुहा ( द्विधा ] रा० ७६४,७६५. जी० ३८३१ इज्जत [दूगमाण ] ओ० ४६ दूइज्माण | दूयमाण ] ओ० १६, २०, ५२, ५३. रा० ६८६,६८७,६८६,७०६,७११,७१३ दूय [दूत ] ओ०१८,६३. रा० ७५४,७५६, ७६२, ७६४ दूर [दुर] ओ० १६२. रा० १२४. जी० ३११०३८ दूरंगइय [ दुरंगतिक ] ओ० ७२ तरसत्त [ दूरतत्व ] जी० ३२६८६ वराहड [दूराहृत ] रा० ७७४ { गुरूदत्त दुरूपत्व | जी० ३१६८४ दूस [ दुव्य ! ओ० ५६. जी० ३।६०८ दूसरवण | दृष्यरत्न ] ओ० ६३ देव [देव] ओ० ४४, ४७ से ५१,६८,७१,७३,७४, से ६५,११४,११७,१२०,१४०,१४१, १२५,१५७ से १६०, १६२, १६७, १७०, १६५:१३,१४, रा० ७,६ से १६,२४,३२,४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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