Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 46
________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र विडंग, जाली वाले घर निर्वृह, कमरों और द्वार वाले गृह और चाँदनी आदि से युक्त जो नाना प्रकार के भवन होते हैं, उसी प्रकार वे गेहाकार वृक्ष भी विविध प्रकार के बहुत से स्वाभाविक परिणाम से परिणत भवनों और गृहों से युक्त होते हैं । उन भवनों में सुखपूर्वक चढ़ा जा सकता है और सुखपूर्वक उतरा जा सकता है, उन भवनों के चढ़ाव के सोपान समीप-समीप हैं, विशाल होने से उनमें सुखरूप गमनागमन होता है और वे मन के अनुकूल होते हैं । ऐसे नाना प्रकार के भवनों से युक्त वे गेहाकार वृक्ष हैं । यावत् अतीव शोभित होते हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ अनग्न नाम के कल्पवृक्ष हैं । जैसे-यहाँ नाना प्रकार के -चर्मवस्त्र, क्षोम-कपास के वस्त्र, कंबल-ऊन के वस्त्र, दकल-मलायम बारीक वस्त्र, कोशेय-रेशमी कीडों से निर्मित वस्त्र, काले मृग के चर्म से बने वस्त्र, चीनांशुकचीन देश में निर्मित वस्त्र, आभूषणों के द्वारा चित्रित वस्त्र, श्लक्ष्ण-बारीक तन्तुओं से निष्पन्न वस्त्र, कल्याणक वस्त्र, भंवरी नील और काजल जैसे वर्ण के वस्त्र, रंग-बिरंगे वस्त्र, लाल-पीले सफेद रंग के वस्त्र, स्निग्ध मगरोम के वस्त्र, सोने चाँदी के तारों से बना वस्त्र, ऊपर-पश्चिम देश का बना वस्त्र, उत्तर देश का बना वस्त्र, सिन्धु-ऋषभ-तामिल बंग-कलिंग देशों में बना हुआ सूक्ष्म तन्तुमय बारीक वस्त्र, इत्यादि नाना प्रकार के वस्त्र हैं जो श्रेष्ठ नगरों में कुशल कारीगरों से बनाये जाते हैं, सुन्दर वर्ण-रंग वाले हैं-उसी प्रकार वे अनग्न वृक्ष भी अनेक और बहुत प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत विविध वस्त्रों से युक्त हैं । यावत् -श्री से अतीव अतीव शोभायमान हैं । हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप में मनुष्यों का आकार-प्रकारादि स्वरूप कैसा है ? हे गौतम ! वे मनुष्य अनुपम सौम्य और सुन्दर रूप वाले हैं । उत्तम भोगों के सूचक लक्षणों वाले हैं, भोगजन्य शोभा से युक्त हैं । उनके अंग जन्म से ही श्रेष्ठ और सर्वांग सुन्दर हैं । उनके पाँव सुप्रतिष्ठित और कछुए की तरह सुन्दर हैं, उनके पाँवों के तल लाल और उत्पल के पत्ते के समान मृदु, मुलायम और कोमल हैं, उनके चरणों में पर्वत, नगर, समुद्र, मगर, चक्र, चन्द्रमा आदि के चिह्न हैं, उनके चरणों की अंगुलियाँ क्रमशः बड़ी, छोटी और मिली हुई हैं उनकी अंगुलियों के नख उन्नत पतले ताम्रवर्ण के व स्निग्ध हैं। __उनके गुल्फ संस्थित घने और गूढ हैं, हरिणी और कुरविंद की तरह उनकी पिण्डलियाँ क्रमशः स्थूल-स्थूल तर और गोल हैं, उनके घुटने संपुट में रखे हुए की तरह गूढ हैं, उनकी जाँ हाथी की सैंड की तरह सुन्दर, गोल और पुष्ट हैं, श्रेष्ठ मदोन्मत्त हाथी की चाल की तरह उनकी चाल है, श्रेष्ठ घोड़े की तरह उनका गुह्यदेश सुगुप्त है, आकीर्णक अश्व की तरह मलमूत्रादि के लेप से रहित है, उनकी कमर यौवनप्राप्त श्रेष्ठ घोड़े और सिंह की कमर जैसी पतली और गोल है, जैसे संकुचित की गई तिपाई, मसल दर्पण का दण्डा और शुद्ध किये हए सोने की मँठ बीच में से पतले होते हैं उसी तरह उनकी कटि पतली है, उनकी रोमराजि सरल-सम-सघन-सन्दर-श्रेष्ठ, पतली, काली, आदेय, लावण्यमय, सुकुमार, सुकोमल और रमणीय है, उनकी नाभि गंगा के आवर्त की तरह दक्षिणावर्त तरंग की तरह वक्र और सूर्य की ऊगती किरणों से खिले हुए कमल की तरह गंभीर और विशाल है । उनकी कुक्षि मत्स्य और पक्षी की तरह सुन्दर और पुष्ट है, उनका पेट मछली की तरह कृश है। उनकी इन्द्रियाँ पवित्र हैं, इनकी नाभि कमल के समान विशाल है, इनके पार्श्वभाग नीचे नमे हुए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुन्दर हैं, जन्म से सुन्दर हैं, परिमित मात्रा युक्त, स्थूल और आनन्द देने वाले हैं, पीठ की हड्डी मांसल होने से अनुपलक्षित होती है, शरीर कञ्चन की तरह कांति वाले निर्मल सुन्दर और निरुपहत होते हैं, वे शुभ बत्तीस लक्षणों से युक्त होते हैं, वक्षःस्थल कञ्चन की शिलातल जैसा उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, पुष्ट, विस्तीर्ण और मोटा होता है, छाती पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित होता है, उनकी भुजा नगर की अर्गला के समान लम्बी होती है, बाहु शेषनाग के विपुल-लम्बे शरीर तथा उठाई हुई अर्गला के समान लम्बे होते हैं । हाथों की कलाइयाँ जूए के समान दृढ़, आनन्द देने वाली, पुष्ट, सुस्थित, सुश्लिष्ट, विशिष्ट, घन, स्थिर, सुबद्ध और निगूढ पर्वसन्धियों वाली हैं। उनकी हथेलियाँ लाल वर्ण की, पुष्ट, कोमल, मांसल, प्रशस्त लक्षणयुक्त, सुन्दर और छिद्र जाल रहित अंगलियाँ वाली हैं। उनके हाथों की अंगलियाँ पष्ट, गोल, सुजात और कोमल हैं। उनके नख ताम्रवर्ण के, पतले, स्वच्छ, मनोहर और स्निग्ध होते हैं । हाथों में चन्द्ररेखा, सूर्यरेखा, शंखरेखा, चक्ररेखा, दक्षिणावर्त स्वस्तिकरेखा, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 46

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