Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 105
________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र दाढ़ाएं हैं, तालु और जीभ लाल कमल के पत्ते के समान मृदु एवं सुकोमल हैं, नख प्रशस्त और शुभ वैडूर्य-मणि की तरह चमकते हुए और कर्कश हैं, उनके उरु विशाल और मोटे हैं, कंधे पूर्ण और विपुल हैं, गले की केसर-सटा मृदु विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, लक्षणयुक्त और विस्तीर्ण है, गति लीलाओं और उछलने से गर्वभरी और साफ-सुथरी होती है, पूँछे ऊंची उठी हुई, सुनिर्मित-सुजात और फठकारयुक्त होती हैं । नख वज्र के समान कठोर हैं, दाँत वज्र के समान मजबूत हैं, दाढ़ाएं वज्र के समान सुदृढ़ हैं, तपे हुए सोने के समान उनकी जीभ है, तपनीय सोने की तरह उनके तालू ये ईच्छानुसार चलने वाले हैं, इनकी गति प्रीतिपूर्वक होती है, ये मन को रुचिकर लगने वाले हैं, मनोरम हैं, नकी गति अमित है, बल-वीर्य-पुरुषकारपराक्रम अपरिमित है । ये जोर-जोर से सिंहनाद करते हुए से आकाश और दिशाओं को गुंजाते हुए और सुशोभित करत हुए चलते रहते हैं। उस चन्द्रविमान को दक्षिण की तरफ से ४००० देव हाथी का रूप धारण कर उठाते वहन करते हैं । वे हाथी श्वेत हैं, सुन्दर हैं, सुप्रभा वाले हैं । उनकी कांति शंकतल के समान विमल-निर्मल है, जमे हुए दहीं की तरह, गाय के दूध, फेन और चाँदी के नीकर की तरह श्वेत है । वज्रमय कुम्भ-युगल के नीचे रही हुई सुन्दर मोटी सँड़ में जिन्होंने क्रीडार्थ रक्तपद्मों के प्रकाश को ग्रहण किया हुआ है । मुख ऊंचे उठे हुए हैं, वे तपनीय स्वर्ण के विशाल, चंचल और चपल हिलते हुए विमल कानों से सुशोभित हैं, शहद वर्ण के चमकते हुए स्निग्ध पीले और पक्ष्मयुक्त तथा मणिरत्न की तरह त्रिवर्ण श्वेत कृष्ण पीत वर्ण वाले उनके नेत्र हैं, अत एव वे नेत्र उन्नत मृदुल मल्लिका के कोरक जैसे प्रतीत होते हैं, दाँत सफेद, एक सरीखे, मजबूत, परिणत अवस्था वाले, सुदृढ़, सम्पूर्ण एवं स्फटिकमय होने से सुजात हैं और मूसल की उपमा से शोभित हैं, दाँतों के अग्रभाग पर स्वर्ण के वलय पहनाये गये हैं । इनके मस्तक पर तपनीय स्वर्ण के विशाल तिलक आदि आभूषण पहनाये हुए हैं, नाना मणियों से निर्मित ऊर्ध्व ग्रैवेयक आदि कंठे के आभरण गले में पहनाये हुए हैं । जिनके गण्डस्थलों के मध्य में वैडूर्यरत्न के विचित्र दण्ड वाले निर्मल वज्रमय तीक्ष्ण एवं सुन्दर अंकुश स्थापित किये हुए हैं । तपनीय स्वर्ण की रस्सी से पीठ का आस्तरण बहुत ही अच्छी तरह सजाकर एवं कसकर बाँधा गया है अत एव वे दर्प से युक्त और बल से उद्धत बने हुए हैं, जम्बूनद स्वर्ण के बने घनमंडलवाले और वज्रमय लाला से ताडित तथा आसपास नाना मणिरत्नों की छोटी-छोटी घंटिकाओं से युक्त रत्नमयी रज्जु में लटके दो बड़े घंटों के मधुर स्वर से वे मनोहर लगते हैं। उनकी पूँछे चरणों तक लटकती हुई हैं, गोल हैं तथा उनमें सुजात और प्रशस्त लक्षण वाले बाल हैं जिनसे वे हाथी अपने शरीर को पोंछते रहते हैं । मांसल अवयवों के कारण परिपूर्ण प की तरह उनके पाँव होते हए भी वे शीघ्र गति वाले हैं। अंकरत्न के उनके नख हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों द्वारा वे जोते हुए हैं । वे ईच्छानुसार गति करने वाले हैं यावत् अपने बहुत गंभीर एवं मनोहर गुलगुलाने की ध्वनि से आकाश को पूरित करते हैं और दिशाओं को सुशोभित करते हैं। उस चन्द्रविमान को पश्चिमदिशा की ओर से ४००० बैलरूपधारी देव उठाते हैं । वे श्वेत हैं, सुन्दर लगते हैं, उनकी कांति अच्छी है, उनके ककुद कुछ कुछ कुटिल हैं, ललित और पुष्ट हैं तथा दोलायमान हैं, दोनों पार्श्वभाग सम्यग् नीचे की ओर झुके हुए हैं, सुजात हैं, श्रेष्ठ हैं, प्रमाणोपेत हैं, परिमित मात्रा में ही मोटे होने से सुहावने लगने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान पतली कुक्षिवाले हैं, नेत्र प्रशस्त, स्निग्ध, शहद की गोली के समान चमकते पीले वर्ण के हैं, जंघाएं विशाल, मोटी और मांसल हैं, स्कंध विपुल और परिपूर्ण हैं, कपोल गोल और विपुल है, ओष्ठ घन के समान निचित और जबड़ों से अच्छी तरह संबद्ध हैं, लक्षणोपेत उन्नत एवं अल्प झुके हुए हैं । वे चंक्रमति, ललित, पुलित और चक्रवाल की तरह चपल गति से गर्वित हैं, मोटी स्थूल वर्तित और सुसंस्थित उनकी कटि है । दोनों कपोलों के बाल ऊपर से नीचे तक अच्छी तरह लटकते हुए हैं, लक्षण और प्रमाणयुक्त, प्रशस्त और रमणीय हैं । खुर और पूँछ एक समान है, सींग एक समान पतले और तीक्ष्ण अग्रभाग वाले हैं । रोमराशि पतली सूक्ष्म सुन्दर और स्निग्ध है । स्कंधप्रदेश उपचित परिपुष्ट मांसल और विशाल होने से सुन्दर हैं, इनकी चितवन वैडूर्यमणि जैसे क्षों से युक्त अत एव प्रशस्त और रमणीय गर्गर नामक आभूषणों से शोभित हैं, घग्घर नामक आभूषण से उनका कंठ परिमंडित है, अनेक मणियों स्वर्ण और रत्नों से निर्मित छोटी-छोटी घंटियों की मालाएं उनके पर मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 105

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