Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-३-द्वीपसमुद्र सूत्र-१६१
हे भगवन् ! द्वीप समुद्र कहाँ अवस्थित हैं ? द्वीपसमुद्र कितने हैं ? वे द्वीपसमुद्र कितने बड़े हैं ? उनका आकार कैसा है ? उनका आकारभाव प्रत्यवतार कैसा है ? गौतम ! जम्बूद्वीप से आरम्भ होनेवाले द्वीप हैं और लवणसमुद्र से आरम्भ होने वाले समुद्र हैं । वे द्वीप और समुद्र (वृत्ताकार होने से) एकरूप हैं। विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं, दूने दूने विस्तार वाले हैं, प्रकटित तरंगों वाले हैं, बहुत सारे उत्पल पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के विकसित पराग से सुशोभित हैं । ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं, प्रत्येक के आसपास चारों ओर वनखण्ड हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! इस तिर्यक्लोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं। सूत्र - १६२
उन द्वीप समुद्रों में यह जम्बूद्वीप सबसे आभ्यन्तर है, सबसे छोटा है, गोलाकार है, तेल में तले पूए के आकार का गोल है, रथ के पहिये के समान गोल है, कमल की कर्णिका के आकार का गोल है, पूनम के चाँद के समान गोल है । यह एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है । ३१६२२७ योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला है।
यह जम्बूद्वीप एक जगती से चारों ओर से घिरा हुआ है। वह जगती ८ योजन ऊंची है । उसका विस्तार मूल में १२ योजन, मध्यममें ८ योजन और ऊपर ४ योजन है । मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पतली है। वह गाय की पँछ के आकार की है। वह परी तरह वज्ररत्न की बनी हुई है। वह स्फटिककी तरह स्वच्छ है, चिकनी है. घिसी हई होनेसे मद है। वह घिसी हई, मंजी हई रजरहित, निर्मल, पंकरहित. निरुपघात दीप्तिवाली, प्रभावाली किरणोंवाली, उद्योतवाली, प्रसन्नता पैदा करनेवाली, दर्शनीय, सन्दर और अति सन्दर है। वह जगती एक जालियों के समहसे सब दिशाओं में घिरी हई है। (अर्थात उसमें सब तरफ झरोखे और रोशनदान हैं।) वह जाल-समह आधा योजन ऊंचा, ५०० धनुष विस्तारवाला है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, मृदु है, चिकना है यावत् सुन्दर, बहुत सुन्दर है। सूत्र-१६३
उस जगती के ऊपर ठीक मध्यभाग में एक विशाल पद्मवरवेदिका है । वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पाँच सौ धनुष विस्तारवाली है । वह सर्वरत्नमय है । उसकी परिधि जगती के मध्यभाग की परिधि के बराबर है | यह पद्मवरवेदिका सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, यावत् अभिरूप, प्रतिरूप है । उसके नेम वज्ररत्न के बने हुए हैं, उसके मूलपाद रिष्टरत्न के बने हुए हैं, इसके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं, उसके फलक सोने चाँदी के हैं, उसकी संधियाँ वज्रमय हैं, लोहिताक्षरत्न की बनी उसकी सूचियाँ हैं । यहाँ जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हैं वे अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं तथा स्त्री-पुरुष युग्म की जोड़ी के चित्र भी अनेकविध मणियों के बने हुए हैं । मनुष्यचित्रों के अतिरिक्त चित्र अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं । अनेक जीवों की जोड़ी के चित्र भी विविध मणियों के बने हैं । उसके पक्ष अंकरत्नों के बने हैं । बड़े बड़े पृष्ठवंश ज्योतिरत्न नामक रत्न के हैं । बड़े वंशों को स्थिर रखने के लिए उनकी दोनों ओर तिरछे रूप में लगाये गये बाँस भी ज्योतिरत्न के हैं । बाँसों के ऊपर छप्पर पर दी जाने वाली लम्बी लकड़ी की पट्टिकाएं चाँदी की बनी हैं । कंभाओं को ढ़ांकने के लिए उनके ऊपर जो ओहाडणियाँ हैं वे सोने की हैं और पुंछनियाँ वज्ररत्न की हैं, पुञ्छनी के ऊपर और कवेलू के नीचे का आच्छादन श्वेत चाँदी का बना हुआ है । वह पद्मवरवेदिका कहीं पूरी तरह सोने के लटकते हुए मालासमूह से, कहीं गवाक्ष की आकृति के रत्नों के लटकते मालासमूह से, कहीं किंकणी और कहीं बड़ी घंटियों के आकार की मालाओं से, कहीं मोतियों की लटकती मालाओं से, कहीं मणियों की मालाओं से, कहीं सोने की मालाओं से, कहीं रत्नमय पद्म की आकृति वाली मालाओं से सब दिशा-विदिशाओं में व्याप्त हैं । वे मालाएं तपे हुए स्वर्ण के लम्बूसग वाली हैं, सोने के पतरे से मंडित हैं, नाना प्रकार
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 56