Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-१७९
उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपातसभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हआ। तब वह उत्पत्ति के अनन्तर पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हआ । वे पाँच पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनप्राणपर्याप्ति और भाषामनपर्याप्ति । तदनन्तर विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयकर है, पश्चात् क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लिये पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा । वह इस प्रकार चिन्तन करता है।
तदनन्तर उसकी सामानिक पर्षदा के देव विजयदेव की ओर आते हैं और विजयदेव को हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय से बधाते हैं । वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन (अरिहंत) प्रतिमाएं रखी हुई हैं और सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो आप देवानुप्रिय के और बहुत से विजया राजधानी के रहनेवाले देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय हैं, जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप तथा पर्युपासना करने योग्य हैं । यह आप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी श्रेयस्कर हैं. पश्चात भी श्रेयस्कर हैं यावत पहले और बाद में हितकारी यावत साथ में चलने वाला होगा, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से जय-जयकार शब्द का प्रयोग करते हैं।
आनिक पर्षदा के देवों से ऐसा सुनकर वह विजयदेव हष्ट-तुष्ट हआ यावत उसका हृदय विकसित हआ। वह देवशयनीय से उठता है, देवदृष्य युगल धारण करता है, देवशयनीय से नीचे उतरता है, उपपातसभा से पूर्व के द्वार से बाहर नीकलता है और जिधर ह्रद है उधर जाता है, ह्रद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के तोरण से उसमें प्रवेश करता है और पूर्वदिशा के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे ऊतरता है और जल में अवगाहन करता है। जलमज्जन और जलक्रीडा करता है । इस प्रकार अत्यन्त पवित्र और शुचिभूत होकर ह्रद से बाहर नीकलता है और जिधर अभिषेकसभा है उधर जाता है । अभिषेकसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है और पूर्वदिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठ जाता है।
तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देवों ने अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और कहा, शीघ्र ही विजयदेव के महार्थ, महाघ, महार्ष और विपुल इन्द्राभिषेक की तैयारी करो । तब वे आभियोगिक देव हृष्टतुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विकसित हुआ । हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर विनयपूर्वक उन्होंने उस आज्ञा को स्वीकार किया । वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में जाते हैं और वैक्रिय-समुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड नीकालते हैं रत्नों के यावत् रिष्टरत्नों के तथाविध बादर पुद्गलों को छोड़ते हैं और यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । तदनन्तर दुबारा वैक्रिय समुद्घात से समवहत होते हैं और १००८-१००८ सोने के, चाँदी के, मणियों के, सोने-चाँदी के, सोने-मणियों के, चाँदी-मणियों के और मिट्टी के कलश, एक हजार आठ झारियाँ, इसी प्रकार आदर्शक, स्थाल, यावत् लोमहस्तपटलक, १०८ सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, तेलसमुद्गक और १०८ धूप के कडुच्छुक अपनी विक्रिया से बनाते हैं। उन स्वाभाविक और वैक्रिय से निर्मित कलशों यावत् धूपकडुच्छुकों को लेकर विजया राजधानी से नीकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् उद्धृत दिव्य देवगति से तीरछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहाँ क्षीरोदसमुद्र है वहाँ आते हैं और वहाँ का क्षीरोदक लेकर वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं । वहाँ से पुष्करोदसमुद्र पुष्करोदक और उत्पल, कमल यावत् शतपत्र, सहस्रपत्रों को लेते हैं । वहाँ से वे समयक्षेत्र में जहाँ भरत-ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) है और जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ है वहाँ आकर तीर्थोदक को और तीर्थों की मिट्टी लेकर गंगा-सिन्दु, रक्ता-रक्तवती महानदियों का जल और नदीतटों की मिट्टी लेकर जहाँ क्षुल्ल हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत है उधर आते हैं और वहाँ से सर्व ऋतुओं
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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