Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र ऊंचा, आधा कोस ऊंडा और आधा कोस चौड़ा है । उसकी छह कोटियाँ हैं, छह कोण हैं और छह भाग हैं, वह वज्र का है, गोल है और सुन्दर आकृतिवाला है, यावत् वह प्रासादीय है । उस चैत्यस्तम्भ के ऊपर छह कोस ऊपर और छह कोस नीचे छोड़कर बीच के साढ़े चार योजन में बहुत से सोने-चाँदी के फलक हैं । उन फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं । उन नागदन्तकों में बहुत से चाँदी के छींके हैं । उन छींकों में बहुत-से वज्रमय गोल समुद्गक हैं । उन वर्तुल समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ हैं । वे विजयदेव और अन्य बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारयोग्य, सन्मानयोग्य, कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप और पर्युपासनायोग्य हैं । उस चैत्यस्तम्भ के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है यावत् प्रतिरूप है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ी सिंहासन है । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पश्चिम में एक बड़ी मणिपीठिका है जो एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, जो सर्वमणिमय है और स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बडा देवशयनीय है।
नाना मणियों के उसके प्रतिपाद हैं, उसके मूल पाये सोने के हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जम्बूनद स्वर्ण की उसकी ईसें हैं, वज्रमय सन्धियाँ हैं, नाना मणियों से वह बुना हुआ है, चाँदी की गादी है, लोहिताक्ष रत्नों के तकिये हैं और तपनीय स्वर्ण का गलमसूरिया है । वह देवशयनीय दोनों ओर तकियोंवाला है, शरीरप्रमाण तकियोंवाला है, वह दोनों तरफ से उन्नत और मध्य में नत और गहरा है, गंगा नदी की बालुका समान वह शय्या उस पर सोते ही नीचे बैठ जाती है, उस पर बेल-बूटे नीकाला हुआ सूती वस्त्र बिछा हुआ है, उस पर रजस्त्राण है, लाल वस्त्र से वह ढ़का हआ है, सुरम्य है, मृगचर्म, रूई, बूर वनस्पति और मक्खन के समान उसका मृदुल स्पर्श है, वह प्रासादीय यावत् प्रतिरूप है।
___ उस देवशयनीय के उत्तर-पूर्वमें एक बड़ी मणिपीठिका है। वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी, आधे योजन मोटी तथा सर्व मणिमय यावत् स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक छोटा महेन्द्रध्वज है जो साढ़े सात योजन ऊंचा, आधा कोस ऊंडा और आधा कोस चौड़ा है । वह वैडूर्यरत्न का है, गोल है और सुन्दर आकार का है, यावत् आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । उस छोटे महेन्द्रध्वज के पश्चिम में विजयदेव का चौपाल नामक शस्त्रागार है । वहाँ विजयदेव के परिघरत्न आदि रखे हुए हैं । वे शस्त्र उज्ज्वल, अति तेज और तीखी धारवाले हैं । वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं । उस सुधर्मासभाके ऊपर बहुत सारे आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं।। सूत्र-१७७
सधर्मासभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल सिद्धायतन (जिनालय) है जो साढे बारह योजन का लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और नौ योजन ऊंचा है । द्वार, मुखमण्डप, प्रेक्षागृहमण्डप, ध्वजा, स्तूप, माहेन्द्रध्वज, नन्दा पुष्करिणियाँ, मनोगुलिकाओं का प्रमाण, गोमाणसी, धूपघटिकाएं, भूमिभाग, उल्लोक आदि का वर्णन सुधर्मासभा के समान कहना । उन सिद्धायतन के बहुमध्य देशभाग में एक विशाल मणिपीठिका है जो दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी है, सर्व मणियों की बनी हुई है, स्वच्छ है । उस के ऊपर एक विशाल देवच्छंदक है, जो दो योजन का लम्बा-चौड़ा और कुछ अधिक दो योजन का ऊंचा है, सर्वात्मना रत्नमय है और स्वच्छ स्फटिक के समान है। उस देवच्छंदक में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन (अरिहंत) प्रतिमाएं रखी हुई हैं।
उन प्रतिमा के हस्ततल तपनीय स्वर्ण के हैं, नख अंकरत्नों के हैं और मध्यभाग लोहिताक्ष रत्नों से युक्त है, पाँव स्वर्ण के हैं, गुल्फ, जंघाए, जानु, ऊरु और गात्रयष्टि कनकमयी हैं, उनकी नाभियाँ तपनीय स्वर्ण की हैं, रोमराजि रिष्टरत्नों की है, चूचुक तपनीय स्वर्ण के हैं, श्रीवत्स तपनीय स्वर्ण के हैं, उनकी भुजाएं, पसलियाँ और ग्रीवा कनकमयी हैं, उनकी मूछे रिष्टरत्न की हैं, होठ विद्रुममय हैं, दाँत स्फटिकरत्न के हैं, तपनीय स्वर्ण की जिह्वाएं हैं, तपनीय स्वर्ण के तालु हैं, कनकमयी नासिका है, मध्यभाग लोहिताक्षरत्नों की ललाई से युक्त है, उनकी आँखें अंकरत्न की हैं और मध्यभाग लोहिताक्ष रत्न की ललाई से युक्त है, दृष्टि पुलकित है, आँखों की तारिका, अक्षिपत्र
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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