Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र वहाँ जयन्त नामका महर्द्धिक देव है और उसकी राजधानी जयन्त द्वार के पश्चिम में तिर्यक् असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर आदि जानना । हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का अपराजित नाम का द्वार कहाँ है ? गौतम! मेरुपर्वत के उत्तर में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की उत्तर दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के उत्तरार्ध के दक्षिण में है । उसका प्रमाण विजयद्वार के समान है। उसकी राजधानी अपराजित द्वार के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीपसमुद्रों को लाँघने के बाद आदि यावत् वहाँ अपराजित नामका महर्द्धिक देव है। सूत्र - १८३ __हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के इन द्वारों में एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कितना है ? गौतम ! ७९०५२ योजन और देशोन आधा योजन। सूत्र - १८४
हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे स्पृष्ट प्रदेश जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप? गौतम ! वे जम्बूद्वीप रूप हैं । हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश स्पृष्ट हुए हैं क्या? हाँ, गौतम ! हैं । हे भगवन् ! वे स्पृष्ट प्रदेश लवणसमुद्र रूप हैं या जम्बूद्वीप रू लवणसमुद्र रूप हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीपमें मरके जीव लवणसमुद्र में पैदा होता है क्या ? गौतम ! कोई होते हैं, कोई नहीं होते ।भगवन् ! लवणसमुद्रमें मरके जीव जम्बूद्वीपमें पैदा होते हैं क्या ? गौतम! कोई होते हैं, कोई नहीं । सूत्र - १८५
हे भगवन् ! जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर में, नीलवंत पर्वत के दक्षिणमें, मालवंतवक्षस्कार पर्वत के पश्चिममें एवं गन्धमादन वक्षस्कारपर्वत के पूर्वमें उत्तरकुरा क्षेत्र । वह पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, अष्टमी के चाँद की तरह अर्ध गोलाकार है । इसका विष्कम्भ ११८४२-२/१९ योजन है । इसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है । और दोनों ओर से वक्षस्कार पर्वतों को छूती हैं । वह जीवा ५३००० योजन लम्बी है । इस उत्तरकुरा का धनुपृष्ठ दक्षिण दिशामें ६०४१८-१२/१९ योजन है
हे भगवन् ! उत्तरकुरा का भूमिभाग बहुत सम और रमणीय है । वह आलिंगपुष्कर के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है-इत्यादि एकोरुक द्वीप अनुसार कहना यावत् वे मनुष्य मरकर देवलोक में उत्पन्न होते हैं । अन्तर इतना है कि इनकी ऊंचाई छह हजार धनुष की होती है । दो सौ छप्पन इनकी पसलियाँ होती हैं । तीन दिन के बाद इन्हें आहार की ईच्छा होती है । इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम-देशोन तीन पल्योपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है । ये ४९ दिन तक अपत्य की अनुपालन करते हैं । उत्तरकुरा क्षेत्र में छह प्रकार के मनुष्य पैदा होते हैं, पद्मगंध, मृगगन्ध, अमम, सह, तेयालीस और शनैश्चारी। सूत्र-१८६
हे भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में यमक नामक दो पर्वत कहाँ पर हैं ? गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में ८३४ योजन और एक योजन के ४/७ भाग आगे जाने पर शीता महानदी के पूर्व-पश्चिम के दोनों किनारों पर उत्तरकुरु क्षेत्र में हैं । ये एक-एक हजार योजन ऊंचे हैं, २५० योजन जमीन में हैं, मूल में एक-एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं, मध्य में ७५० योजन लम्बे-चौड़े हैं और ऊपर पाँच सौ योजन आयाम-विष्कम्भवाले हैं । मूल में इनकी परिधि ३१६२ योजन से कुछ अधिक है । मध्य में इनकी परिधि २३७२ योजन से कुछ अधिक है और ऊपर १५८१ योजन से कुछ अधिक की परिधि है । ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतले हैं । ये गोपुच्छ के आकार के हैं, सर्वात्मना कनकमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । ये प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका से परिक्षिप्त हैं और प्रत्येक पर्वत वनखंड से युक्त हैं । उन यमक पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है । यावत् वहाँ से वानव्यन्तर देव और देवियाँ ठहरती हैं, लेटती हैं यावत् पुण्य-फल का अनुभव करती हुई विचरती हैं । उन दोनों बहुसमरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । वे साढ़े बासठ योजन ऊंचे और इकतीस
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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