Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र योजन एक कोस के चौड़े हैं, वहाँ दो योजन की मणिपीठिका है। उस पर श्रेष्ठ सिंहासन है । ये सिंहासन सपरिवार हैं | यावत् उन पर यमक देव बैठते हैं।
हे भगवन ! ये यमक पर्वत, यमक पर्वत क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! उन यमक पर्वतों पर जगह-जगह बहुतसी छोटी छोटी बावडियाँ यावत् बिलपंक्तियाँ हैं, उनमें बहुत से उत्पल कमल यावत् सहस्रपत्र हैं जो यमक के आकार के हैं, यमक के समान वर्ण वाले हैं और यावत् पल्योपम की स्थिति वाले दो महान् ऋद्धि वाले देव रहते हैं । वे देव वहाँ अपने चार हजार सामानिक देवों का यावत्, यमक राजधानियों का और बहुत से अन्य वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् उनका पालन करते हुए विचरते हैं । इसलिए यमक पर्वत कहलाते हैं । ये यमक पर्वत शाश्वत हैं यावत् नित्य हैं । हे भगवन् ! इन यमक देवों की यमका नामक राजधानियाँ कहाँ हैं ? गौतम ! इन यमक पर्वतों के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के पश्चात् प्रसिद्ध जम्बूद्वीप से भिन्न अन्य जम्बूद्वीपमें १२००० योजन आगे जाने पर हैं यावत यमक नाम के दो महर्द्धिक देव उनके अधिपति हैं। सूत्र - १८७
भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में नीलवंत द्रह कहाँ है ? गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिण में ८३४-४/७ योजन आगे जाने पर सीता महानदी के ठीक मध्य में है । एक हजार योजन इसकी लम्बाई है और पाँच सौ योजन की चौड़ाई है । यह दस योजन गहरा है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है, रजतमय इसके किनारे हैं, यह चतुष्कोण और समतीर हैं यावत् प्रतिरूप हैं । यह दोनों ओर से पद्मवरवेदिकाओं और वनखण्डों से चौतरफ घिरा हुआ है । नीलवंतद्रह नामक द्रह में यहाँ-वहाँ बहुत से त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं । उस नीलवंत नामक द्रह के मध्यभाग में एक बड़ा कमल है। वह कमल एक-एक योजन लम्बा चौड़ा है । उसकी परिधि इससे तिगुनी से कुछ अधिक है । इसकी मोटाई आधा योजन है । यह इस योजन जल के अन्दर है और दो कोस जल से ऊपर है । दोनों मिलाकर साढ़े दस योजन की इसकी ऊंचाई है।
उस कमल का मूल वज्रमय है, कंद रिष्टरत्नों का है, नाल वैडूर्यरत्नों की है, बाहर के पत्ते वैडूर्यमय हैं, आभ्यन्तर पत्ते जंबूनद के हैं, उसके केसर तपनीय स्वर्ण के हैं, स्वर्ण की कर्णिका है और नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है । वह कर्णिका आधा योजन की लम्बी-चौड़ी है, इससे तिगुनी से कुछ अधिक इसकी परिधि है, एक कोस की मोटाई है, यह पूर्णरूप से कनकमयी है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है । उस कर्णिका के ऊपर एक बहुसमरमणीय भूमिभाग है । उस के ठीक मध्य में एक विशाल भवन है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और एक कोस से कुछ कम ऊंचा है। वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित है। उस भवन में तीन द्वार हैं-पूर्व, दक्षिण
और उत्तर में | वे द्वार पाँच सौ धनुष ऊंचे हैं, ढाई सौ धनुष चौडे हैं और इतना ही इनका प्रवेश है। ये श्वेत हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका से युक्त हैं यावत् उन पर वनमालाएं लटक रही हैं । उस भवन में बहुसमरमणीय भूमिभाग है । उस के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका हैं, जो पाँच सौ धनुष की लम्बी-चौड़ी है और ढाई सौ योजन मोटी है और सर्वमणियों की बनी हुई है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशयनीय है।
वह कमल दूसरे एक सौ आठ कमलों से सब ओर से घिरा हुआ है । वे कमल उस कमल से आधे ऊंचे प्रमाण वाले हैं। आधा योजन लम्बे-चौड़े और इससे तिगुने से कुछ अधिक परिधि वाले हैं। उनकी मोटाई एक कोस की है । वे दस योजन पानी में ऊंडे हैं और जलतल से एक कोस ऊंचे हैं । जलांत से लेकर ऊपर तक समग्र रूप में वे कुछ अधिक दस योजन के हैं । वज्ररत्नों के उनके मूल हैं, यावत् नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है । कमल की कर्णिकाएं एक कोस लम्बी-चौड़ी हैं और उससे तिगुने अधिक उनकी परिधि है, आधा कोस की मोटाई है, सर्व कनकमयी हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उस कमल के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में नीलवंतद्रह के नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार पद्म हैं । वह कमल अन्य तीन पद्मवरविक्षेप से सब ओर से घिरा हआ है । आभ्यन्तर पद्म परिवेशमें ३२ लाख पद्म हैं, मध्यम पद्मपरिवेश में ४० लाख पद्म हैं और बाह्य पद्मपरिवेश में अड़तालीस लाख पद्म हैं। इस प्रकार सब पद्मों की संख्या १ करोड २० लाख हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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