Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 68
________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र से वानव्यंतर देव और देवियाँ स्थित होती हैं, सोती हैं, ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीड़ा करती हैं, कामक्रीड़ा करती हैं और अपने पूर्व जन्म में पुराने अच्छे अनुष्ठानों का, सुपरा-क्रान्त तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मों का कल्याणकारी फलविपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं । उन वनखण्डों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । वे साढ़े बासठ योजन ऊंचे, इकतीस योजन और एक कोस लम्बे-चौड़े हैं । ये चारों तरफ से नीकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों इत्यादि यावत् उनके अन्दर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं। उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग सिंहासन हैं । यावत् सपरिवार सिंहासन जानने चाहिए । उन प्रासादावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलक हैं, ध्वजाएं हैं और छत्रों पर छत्र हैं । वहाँ चार देव रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थितिवाले हैं, अशोक, सप्तपर्ण, चंपक और आम्र । वे अपने-अपने वनखंड का, अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपने-अपने सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी पर्षदा का और अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं। विजय राजधानी के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वह पाँच वर्णों की मणियों से शोभित है । तृण-शब्दरहित मणियों का स्पर्श यावत् देव-देवियाँ वहाँ उठती-बैठती हैं यावत् पुराने कर्मों का फल भोगती हुई विचरती हैं । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ा उपकारिकालयन है जो बारह सौ योजन का लम्बाचौड़ा और तीन हजार सात सौ पिचानवे योजन से कुछ अधिक की उसकी परिधि है । आधा कोस की उसकी मोटाई हे । वह पूर्णतया स्वर्ण का है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । वह उपकारिकालयन एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्ठित है । यावत् वहाँ वानव्यन्तर देव-देवियाँ कल्याणकारी पुण्यफलों का अनुभव करती हुई विचरती हैं । वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चक्रवाल विष्कम्भ वाला और उपकारिकालयन के परिक्षेप के तुल्य परिक्षेपवाला है । उस उपकारिकालयन के चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं | उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के आगे अलग-अलग तोरण कहे गये हैं यावत् छत्रों पर छत्र हैं। उस उपकारिकालयन के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वह मणियों से उपशोभित है । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक बड़ा मूल प्रासादावतंसक है । वह साढ़े बासठ योजन का ऊंचा और इकतीस योजन एक कोस की लंबाई-चौड़ाई वाला है। वह सब ओर से नीकलती हुई प्रभाकिरणों से हँसता हुआ-सा लगता है आदि । उस प्रासादावतंसक के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा है यावत् मणियों का स्पर्श और भीतों पर विविध चित्र हैं । उस के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधा योजन की मोटाई वाली है । वह सर्वमणिमय, स्वच्छ और मृदु है । उसके ऊपर एक बड़ा सिंहासन है । उस प्रासादावतंसक के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । वे अन्य उनसे आधी ऊंचाई वाले चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं । वे इकतीस योजन एक कोस की ऊंचाई वाले साढ़े पन्द्रह योजन और आधा कोस के लम्बे-चौडे, किरणों से युक्त हैं । उन के अन्दर बहसमरमणीय भूमिभाग यावत चित्रित भीतरी छत है बहुसमरमणीय भूमिभाग के बहुमध्यदेशभाग में प्रत्येक में अलग-अलग सिंहासन हैं । उन सिंहासनों के परिवार के तुल्य वहाँ भद्रासन हैं । इन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊंचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से वेष्ठित हैं । वे प्रासादावतंसक साढ़े पन्द्रह योजन और आधे कोस के ऊंचे और कुछ कम आठ योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, किरणों से युक्त आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए । उनके अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं और चित्रित छतों के भीतरी भाग हैं । उन बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में अलग-अलग पद्मासन हैं । उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊंचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं । वे कुछ कम आठ योजन की ऊंचाई वाले और कुछ कम चार योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, किरणों से व्याप्त हैं । उन प्रासादावतंसकों पर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊंचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से चारों ओर से घिरे हुए हैं । वे कुछ कम चार मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 68

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