Book Title: Agam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अग्नि, अग्नि से शुद्ध हुआ तप्त तपनीय स्वर्ण, विकसित हुए किंशुक के फूलों, अशोकपुष्पों और जपा-पुष्पों का समूह, मणिरत्न की किरणें, श्रेष्ठ हिंगलू का समुदाय अपने-अपने वर्ण एवं आभारूप से तेजस्वी लगते हैं, वैसे ही वे ज्योतिशिखा कल्पवृक्ष अपने बहुत प्रकार के अनेक विस्रसा परिणाम से उद्योत विधि से युक्त होते हैं । उनका प्रकाश सुखकारी है, तीक्ष्ण न होकर मंद है, उनका आताप तीव्र नहीं है, जैसे पर्वतके शिखर एक स्थान पर रहते हैं, वैसे ये अपने ही स्थान पर स्थित होते हैं, एक दूसरे से मिश्रित अपने प्रकाश द्वारा ये अपने प्रदेशमें रहे हुए पदार्थों को सब तरफ से प्रकाशित करते हैं, उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं । यावत् श्री से अतीव शोभायमान होते हैं
हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में यहाँ वहाँ बहुत सारे चित्रांग नाम के कल्पवृक्ष हैं । जैसे कोई प्रेक्षाघर नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित, रम्य, श्रेष्ठ फूलों की मालाओं से उज्ज्वल, विकसित-प्रकाशित बिखरे हुए पुष्प-पंजों से सन्दर, विरल-पथक-पथक रूप से स्थापित हई एवं विविध प्रकार की गॅथी हई मालाओं की शोभा के
तीव मनमोहक होता है, ग्रथित-वेष्टित-परित-संघातिम मालाएं जो चतर कलाकारों द्वारा गॅथी गई हैं उन्हें बड़ी ही चतुराई के साथ सजाकर सब और रखी जाने से जिसका सौन्दर्य बढ़ गया है, अलग अलग रूप से दूर दूर लटकती हुई पाँच वर्णों वाली फूलमालाओं से जो सजाया गया हो तथा अग्रभाग में लटकाई गई वनमाला से जो दीप्तिमान हो रहा हो ऐसे-प्रेक्षागृह के समान वे चित्रांग कल्पवृक्ष भी अनेक-बहुत और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम से माल्यविधि से युक्त हैं । यावत् श्री से अतीव सुशोभित हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष हैं । जैसे सुगन्धित श्रेष्ठ कलम जाति के चावल और विशेष प्रकार की गाय से निसृत दोष रहित शुद्ध दूध से पकाया हुआ, शरद ऋतु के घी-गुड-शक्कर और मधु से मिश्रित अति स्वादिष्ट और उत्तम वर्ण-गंध वाला परमान्न निष्पन्न किया जाता है, अथवा जैसे चक्रवर्ती राजा के कुशल सूपकारों द्वारा निष्पादित चार उकालों से सिका हुआ, कलम जाति के ओदन जिनका एक-एक दाना बाष्प से सीझ कर मृदु हो गया है, जिसमें अनेक प्रकार के मेवा-मसाले डाले गये हैं, सुगंधित द्रव्यों से जो संस्कारित किया गया है, जो श्रेष्ठ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होकर बल-वीर्य रूप में परिणत होता है, इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाने वाला है, भूख-प्यास को शान्त करने वाला है, प्रधानरूप से गुड़, शक्कर या मिश्री से युक्त किया हुआ है, गर्म किया हुआ घी डाला गया है, जिसका अन्दरूनी भाग एकदम मुलायम एवं स्निग्ध हो गया है, जो अत्यन्त प्रियकारी द्रव्यों से युक्त किया गया है, ऐसा परम आनन्ददायक परमान्न होता है, उस प्रकार वे चित्ररस नामक कल्पवृक्ष होते हैं । उन वृक्षों में यह सामग्री नाना प्रकार के विस्रसा परिणाम से होती है। यावत् श्री से अतीव सुशोभित होते हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से मण्यंग नामक कल्पवृक्ष हैं । जिस प्रकार हार, अर्धहार, वेष्टनक, मुकुट, कुण्डल, वामोत्तक, हेमजालमणिजाल, सूत्रक, उच्चयित कटक, मुद्रिक, एकावली, कण्ठसूत्र, मकराकार आभूषण, उरः स्कन्ध ग्रैवेयक, श्रोणीसूत्र, चूडामणि, सोने का तिलक, बिंदिया, सिद्धार्थक, कर्णपाली, चन्द्र के आकार का भूषण, सूर्य के आकार का भूषण, वृषभ के आकार के, चक्र के आकार के भूषण, तल भंगक-त्रुटिक, मालाकार हस्ताभूषण, वलक्ष, दीनार की आकृति की मणिमाला, चन्द्र-सूर्यमालिका, हर्षक, केयूर, वलय, प्रालम्बनक, अंगुलीयक, काञ्ची, मेखला, कलाप, प्रतरक, प्रातिहारिक, पाँव में पहने जाने वाले घूघरू, किंकणी रत्नमय कन्दौरा, नुपूर, चरणमाला, कनकनिकर माला आदि सोना-मणि-रत्न आदि की रचना से चित्रित और सुन्दर आभूषणों के प्रकार हैं उसी तरह वे मण्यंग वृक्ष यावत् अतीव शोभायमान हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से गेहाकार नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं । जैसे-प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, प्रासाद, आकाशतल, मंडप, एक यावत् चार खण्ड वाले मकान गर्भगृह, मोहनगृह, वलभिघर, चित्रशाला से सज्जित प्रकोष्ठ गृह, भोजनालय, गोल, तिकोने, चौरस, नंदियावर्त्त आकार के गृह, पाण्डुर-तलमुण्ड-माल, हर्म्य, अथवा धवल गृह, अर्धगृह-मागधगृह-विभ्रमगृह, पहाड़ के अर्धभाग जैसे आकार के, पहाड़ जैसे आकार के गृह, पर्वत के शिखर के आकार के गह, सुविधिकोष्टक गह, अनेक कोठों वाला गृह, शरणगृह शयनगृह आपणगृह,
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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