Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी ?
॥ २० ॥ तए तीस गंगदत्ताए भारियाए तिण्हं मासाणं बहुपडि पुष्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धण्णाआणं ताओ अम्मयाओ जाव फलं जाओणं विपुलं असणं ४ उबक्खडावेइ २ ता बहुहिं जाय मित्त परिबुडाओ तं विपुलं असणं ४ सुरंच ६, पुष्फ जाव गहाइ पाडलिसंडं जयरं मझमझेणं पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ २ सा पक्खरिणी उगाहेइ २ ता व्हाया जाव पायच्छिताओ तं विपलं
असणं ४ बहुहिं मित्त णाई जाव सद्धिं आसाएइ ४ दोहलं विणेइ ॥ एवं संपेहेइ सार्थवाहीनी कूक्षी में पुत्रपने उत्पन्न हुवा ॥२०॥ तत्र उस गंगदत्ता भारिया को तीन महीने प्रतिपूर्ण हुवे इस प्रकार का होहला प्राप्त हुवा धन्य है उस माता को यावत् जीवित फल सफल है कि जो विस्तीर्ण अशनादि चार प्रकार का आहार तैयार कराकर स्वजन बहुत यावत् मित्रादिकी स्वीयोंके साथ परिवरी हुई। उस विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार को ग्रहण कर पाडलीखंड नगर के मध्य २ से निकालकर जहा पुष्करनी पावडी है तहां जाकर पुष्करनी में प्रवेश कर स्नानकर प्राय:श्चित कर शुद्ध हो उस विस्तीर्ण अशनादि चारों आहार की बहुत मित्रादि की स्त्रीयों के साथ अस्वादती खाती खिलाती डोहला पूर्ण करती है, उसे धन्य है में भी ऐसा करूं; ऐला विचार कर प्रातःकाल होते यावत् जाज्यल्य मान सूर्योदय होते जहां सागरदत्त सार्थवाही था तहां आइ, सागरदत्त सार्थवाही से ऐसा कहने लगीधन्य
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी उसालाप्रसादजी *
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org