Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 196
________________ इटे-इ8 रूबे, कतै-कंतरूवे, पिए-पिएरूवे, मणुणे-मणाणे, सोमे, सुभगे, पियसिपी, सुरूवे बहुजणस्स वियणं भंते! सुबाहु कुमारे इष्टेरकते सोमे४ साहुजणस्स वियणं,भते! सुबहुकुमारे इ8 इट्ठरूवेय जाव सुरूवे सुबाहुकुमारेणं भंते ! इमेयारूवे उराला माणुस्सरिद्धी किण्णालद्धा किण्णापत्ता किण्णा आभि समण्णागया, कोवाएस आसि पुत्रभव जाव समण्णा गया ? ॥ १२ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणंसमएणं हर्षाश्चर्य है कि अहो भगवंत ! बहुत लोगों में सर्वाधिक साहुकुमार इष्टकारी इष्टकारी रूपवाला, कंतकारी कन्तकारी रूपवाला, पियकारी प्रियकारी रूपवाला, मनोज्ञयनाम सौम्य - चन्दमा समान सौभाग्यवंत, मोत्पादक सुन्दर दर्शनी स्वरूप शोभनिकाकार, देखने में आया, अहो भदंत ! सुबाहुकुमार इष्टकारी बल्लभकारी अच्छा, कामनीय सौम्य-औदार यावत् मुरूप, अहो भदंत ! मुवा हुकुमार को इस प्रकार उदार प्रधान मनुष्य की ऋद्धि किस प्रकार की करनी करने से मिली है किस प्रकार प्राप्तहुई है किस हेतुसे, भोगवने मन्मुख आई, सुबाहुकुमार परभव में कौन था यावत् क्या नाम व क्या गौत्र था कहां रहता था, क्या इसने अच्छा पदार्थ सुपात्रदानदिया, क्या इसने फामुक आहारादि भोगवा, क्या इमने उत्तमाचार समाचारन किया, किस प्रकार माधु श्रावक के पास धर्म श्रवण किया, जिम से मुबाहकुपार को इम कपकार की प्रधान मनुष्य सम्बन्धी ऋद्धि मिली प्राप्तहई समाव आई है? ॥१२॥ भगवंत बोले-यों 49 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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