Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अर्थवत्ता लिए होता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यही अद्भुतता है, विलक्षणता है कि हिंसा अहिंसा, सत्य, असत्य आदि के ६०, ३० आदि जो पर्यायवाची नाम दिये हैं, वे सभी भिन्न-भिन्न अर्थ के द्योतक हैं। उनकी पहुंच मानव के गहन अन्तःकरण तक होती है और भिन्न-भिन्न मानसवृत्तियों, स्थितियों और प्रवृत्तियों को दर्शाती हैं। उदाहरण स्वरूप-हिंसा के पर्यायवाची नामों में क्रूरता भी है और क्षुद्रता भी है। क्रूरता को हिंसा समझना बहुत सरल है, किन्तु क्षुद्रता भी हिंसा है, यह बड़ी गहरी व सूक्ष्म बात है। क्षुद्र का हृदय छोटा, अनुदार होता है तथा वह भीत व त्रस्त रहता है। उसमें न देने की क्षमता है, न सहने की, इस दृष्टि से अनुदारता, असहिष्णता तथा कायरता 'क्षुद्र' शब्द के अर्थ को उद्घाटित करती है और यहाँ हिंसा का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है।
तीसरे संवरद्वार में अस्तेयव्रत की आराधना कौन कर सकता है, उसकी योग्यता, अर्हता व पात्रता का वर्णन करते हुए बताया है-'संग्रह-परिग्रहकुशल' व्यक्ति अस्तेयव्रत की आराधना कर सकता है।
संग्रह-परिग्रह शब्द की भावना बड़ी सूक्ष्म है । टीकाकार आचार्य ने बताया है—'संग्रह-परिग्रह-कुशल' का अर्थ है संविभागशील, जो सबको समान रूप से बँटवारा करके सन्तुष्ट करता हो, वह समवितरणशील या संविभाग में कुशल व्यक्ति ही अस्तेयव्रत की आराधना का पात्र है।
'प्रार्थना' को चौर्य में गिनना व आदर को परिग्रह में समाविष्ट करना बहुत ही सूक्ष्म विवेचना व चिन्तना की बात है। इस प्रकार के सैकड़ों शब्द हैं, जिनका प्रचलित अर्थों से कुछ भिन्न व कुछ विशिष्ट अर्थ है
और उस अर्थ के उद्घाटन से बहुत नई अभिव्यक्ति मिलती है। मैंने टीका आदि के आधार पर उन अर्थों का उद्घाटन कर उनकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि स्पष्ट करने का प्रयत्न भी किया है।
यद्यपि आगम अनुवाद-सम्पादन के क्षेत्र में यह मेरा प्रथम प्रयास है, इसलिए भाषा का सौष्ठव, वर्णन की प्रवाहबद्धता व विषय की विशदता लाने में अपेक्षित सफलता नहीं मिली, जो स्वाभाविक ही है, किन्तु सुप्रसिद्ध साहित्यशिल्पी श्रीचन्दजी सुराना का सहयोग, पथदर्शन तथा भारतप्रसिद्ध विद्वान मनीषी आदरणीय पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल का प्रकथनीय सहयोग इस पागम को सुन्दर रूप प्रदान करने में समर्थ हा है । वास्तवे में युवाचार्यश्री की उदारता तथा गुणज्ञता एवं पं. श्री भारिल्लजी साहब का संशोधन-परिष्कार मेरे लिए सदा स्मरणीय रहेगा। यदि भारिल्ल साहब ने संशोधन-श्रम न किया होता तो यह आगम इतने सुव्यवस्थित रूप में प्रकट न होता । मैं प्राशा व विश्वास करता हूँ कि पाठकों को मेरा श्रम सार्थक लगेगा और मुझे भी उनकी गुणज्ञता से आगे बढ़ने का साहस व आत्मबल मिलेगा। इसी भावना के साथ
-प्रवीण ऋषि
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